Gajanan Madhav Muktibodh : गजानन माधव मुक्तिबोध ( 13 नवंबर, 1917 – 11 सितंबर, 1964). जीवन के 47 वर्ष पूरे होने से पहले ही वर्ष 1964 के सितंबर में मुक्तिबोध ने अंतिम सांस ली. उनके जाने के बाद नवंबर में 40 पृष्ठ लंबी और आठ खंडों में बंटी हुई उनकी कविता ‘अंधेरे में’ प्रकाशित हुई. मुक्तिबोध का कविता संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ इसी वर्ष आया, जिसमें उनकी लंबी कविता ‘अंधेरे में’ भी शामिल है. वर्ष 1964 में ही उनकी पुस्तक ‘एक साहित्यिक की डायरी’, ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ भी प्रकाशित हुए. इसके बाद उनकी कई और किताबें प्रकाशित हुईं, जिनमें ‘काठ का सपना’ , ‘विपात्र’, ‘सतह से उठता आदमी’ और ‘नये साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ शामिल हैं.
‘सतह से उठता आदमी’ से कुछ उद्धरण

- मनुष्य अपने इतिहास से जुदा नहीं है, वह कभी भी अपने इतिहास से जुदा नहीं हो सकता- न अपने बाह्य जीवन के इतिहास से, न अपने अंतर्जीवन के इतिहास से. उसका अंतर्जीवन अपने स्वप्नों में, अपने तर्कों और विश्लेषणों में डूबता आ रहा है. उसे अधिकार है कि वह उसमें डूबता रहे.
- पाप के समय भी मनुष्य का ध्यान इज्जत की तरफ रहता है. वह पाप करते समय पाप से नहीं डरता, पाप के खुलने से डरता है.
- बहुत छोटी कठिनाइयों को जब विस्तृत और रंगीन रूप दिया जाता है, तब वे मन पर उतना ही असर करती हैं, जितनी की बड़ी और गंभीर. तब उनमें दूसरों से ली हुई शक्ति आ जाती है.
- जोकर होना क्या बुरा है! जोकर एक बड़ा भारी मजाक है और तो और, जोकर अपनी भावनाएं व्यक्त कर सकता है. चपत जड़ सकता है. एक-दूसरे को लात मार सकता है और फिर भी कोई दुर्भावना नहीं है. वह हंस सकता है, हंसा सकता है. उसके ह्रदय में इतनी सामर्थ्य है.
- मन पर शायद विजय प्राप्त की जा सकती है. आत्मा को भी वशीभूत किया जा सकता है, किंतु अपने चरित्र को नहीं. क्योंकि स्वयं का चरित्र ज्ञान होना बड़ा मुश्किल है. उस ज्ञान की संपूर्ण उपलब्धि तो एकदम कठिन है.
(‘सतह से उठता आदमी’ मुक्तिबोध का कहानी संग्रह है. भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित इस संग्रह में उनकी नौ कहानियां शामिल हैं.)
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