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Supreme Court : जब किसी बिल को विधायिका ने पास कर दिया, तो क्या सुप्रीम कोर्ट उस बिल को लागू करने से रोक सकता है? क्या राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को मानने के लिए बाध्य है, जबकि वो देश के संवैधानिक प्रधान हैं. वक्फ संशोधन अधिनियम और तमिलनाडु के 10 विधेयकों को अनिश्चतकाल तक रोक कर रखने के मसले पर जिस तरह की बयानबाजी देश में हो रही है, उससे आम आदमी भ्रम में है और वह जानने की कोशिश कर रहा है कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने जो कुछ कहा, क्या वह सही है या फिर वरिष्ठ राजनेता और अधिवक्ता कपिल सिब्बल जो कह रहे हैं वह सही है.
क्या है आर्टिकल 368 जो विधायिका को संविधान में संशोधन का अधिकार देता है
भारतीय संविधान का आर्टिकल 368 संसद को यह अधिकार देता है कि वह संविधान में संशोधन कर सकती है और यह संशोधन जोड़, परिवर्तन या विलोपन कुछ भी हो सकता है. आर्टिकल 368 के अनुसार संसद उपस्थित सदस्यों के बहुमत से या फिर दो तिहाई सदस्यों के बहुमत से किसी बिल को पास कर सकता है. राज्यों से संबंधित मसलों में राष्ट्रपति की अनुमति से पहले राज्यों के विधानसभा से भी बिल को पास कराना होता है.
संसद को कुछ भी संशोधन का नहीं है अधिकार
भारतीय संविधान ने संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार तो दिया है, लेकिन संसद की शक्ति असीमित नहीं है और वह कुछ भी संशोधन नहीं कर सकती है. केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार 1973 के केस में यह बात पूरी तरह साबित हुई है. इस ऐतिहासिक केस में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की बेंच बैठी थी और उसने 7:6 से अपना फैसला सुनाया था. कोर्ट ने यह माना कि संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार है, लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि संसद संविधान की मूल भावना में बदलाव नहीं कर सकती है. हालांकि कोर्ट ने यह स्पष्ट नहीं किया कि संसद किन चीजों में संशोधन नहीं कर सकती है, लेकिन कुछ बातें सामने आती हैं, जिनमें परिवर्तन संभव नहीं है, वे हैं
- देश का लोकतांत्रिक स्वरूप
- नागरिकों के मौलिक अधिकार
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- धर्मनिरपेक्षता
- संविधान की सर्वोच्चता
क्या था केशवानंद बनाम केरल सरकार केस
केरल सरकार ने भूमि सुधार कानून लागू किया था, जिसके तहत जिनके पास ज्यादा जमीनें थीं, उनका अधिग्रहण करके सरकार गरीबों को दे रही थी. इसकी वजह से एडनीर मठ की जमीनों को सरकार ने अधिग्रहित करने की कोशिश की थी, जिसके खिलाफ मठ के प्रमुख केशवानंद भारती ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था. हालांकि उन्हें कोर्ट में जीत नहीं मिली थी क्योंकि सरकार ने इसे नौवीं अनुसूची में डाल दिया था और उस वक्त के हिसाब से नौवीं अनुसूची के विषयों की न्यायिक समीक्षा संभव नहीं थी, लेकिन इस केस में यह बात स्थापित हुई थी कि संसद संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती है.
आर्टिकल 142 में है सुप्रीम कोर्ट के पूर्ण न्याय की चर्चा
सुप्रीम कोर्ट को संविधान ने समीक्षा का अधिकार दिया है, जिसके तहत वो संसद द्वारा बनाए कानूनों की भी समीक्षा करता है और यह निर्धारित करता है कि कोई कानून संविधान के अनुसार है या नहीं. भारत का संविधान सर्वोच्च है और वह न्यायपालिका को यह अधिकार देता है कि वह पूर्ण न्याय करने करे. सुप्रीम कोर्ट के पूर्ण न्याय के बारे में कोई व्याख्या नहीं की गई है और इसे न्यायालय पर छोड़ दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर मामले में भी इसी पूर्ण न्याय के अधिकार का उपयोग करते हुए मंदिर निर्माण का आदेश दिया और मुसलमानों के लिए 5 एकड़ जमीन देने का आदेश दिया था ताकि मुसलमानों के साथ अन्याय ना हो. भोपाल गैस कांड में भी सुप्रीम कोर्ट के इसी पूर्ण न्याय के अधिकार के तहत यूनियन कार्बाइड कंपनी को 470 मिलियन डॉलर का भुगतान करने का आदेश दिया था.
मर्यादा में रहकर ही बनी रह सकती है व्यवस्था
विधायी मामलों के जानकार अयोध्या नाथ मिश्र का कहना है कि भारतीय संविधान ने शासन के सभी अंगों को अधिकार दिए हैं, ताकि व्यवस्था सुचारू रूप से चले. कभी-कभी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टसल शुरू हो जाती है. लेकिन संविधान को देखें, तो हम पाएंगे कि शासन के ये अंग नहीं बल्कि संविधान सर्वोपरि है, इसलिए मर्यादा में रहकर ही शासन के अंगों को काम करना चाहिए.
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