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Partition Of India : 15 अगस्त 1947 को जब अंग्रेजी हुकूमत से भारत आजाद हुआ, तो उसके दो टुकड़े हुए थे. भारत के विभाजन की यह कहानी इतनी दर्दनाक है कि जब भी भारत की आजादी का जश्न मनाया जाता है, एकबारगी लोगों के जेहन में विभाजन का दर्द भी उभर आता है. भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था और उस वक्त मुसलमानों के नेता माने जा रहे मोहम्मद अली जिन्ना ने यह कहा था हिंदू और मुसलमान दोनों अलग-अलग पहचान हैं और ये एक साथ नहीं रह सकते हैं. मोहम्मद अली जिन्ना भारत में मुसलमानों के नेता माने जाते हैं, हालांकि देश में कई ऐसे मुस्लिम नेता थे, जो जिन्ना के हिंदू और मुसलमानों के लिए दो राष्ट्र के सिद्धांत से सहमत नहीं थे. बावजूद इसके देश में यह एक आम राय तो है कि जिन्ना ही वो व्यक्ति थे जिन्होंने भारत का विभाजन करवाया. ऐसे में यह सवाल भी लाजिमी है कि जिन्ना और उनके समर्थक तो विभाजन चाहते थे, लेकिन देश का आम मुसलमान क्या चाहता था?
1947 में भारत के आम मुसलमान की नुमाइंदगी नहीं कर रहा था मुस्लिम लीग
मुस्लिम लीग का गठन 30 दिसंबर 1906 में इसलिए हुआ था क्योंकि प्रबुद्ध मुसलमानों का यह मानना था कि कांग्रेस पर हिंदुओं का प्रभाव है, इसलिए मुसलमानों के मुद्दे और उनकी आवाज दबकर रह जाएगी. स्थापना के वक्त मुस्लिम लीग का उद्देश्य भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होना नहीं था, बल्कि वे सिर्फ मुसलमानों के राजनीतिक अधिकार और शैक्षिक प्रगति के लिए काम कर रहे थे. बाद में मुस्लिम लीग ने खुद को मुसलमानों के रहनुमा के रूप में पेश किया और दो देश का सिद्धांत को यह कहते हुए दिया, हिंदू और मुसलमान दो अलग आइडेंटिटी हैं और दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं, इसलिए दोनों के लिए अलग-अलग देश होना चाहिए. हालांकि उस वक्त कांग्रेस के मुस्लिम नेता मौलाना अबुल कलाम आजाद का काफी प्रभाव था जो जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत के मुखर विरोधी थी. उन्होंने 1947 में जामा मस्जिद में ऐतिहासिक भाषण, जिसमें पाकिस्तान जाने वालों को खूब लताड़ा था. उन्होंने यह कहा था कि जहां आप वर्षों से रहते आए हैं आज वहीं पर आप खतरा क्योंकर महसूस हो रहा है. उनके आह्वान पर कई लोगों ने पाकिस्तान जाने का इरादा बदल दिया था, इससे यह बात तो साफ है कि भारत में एक तबका ऐसा भी था जो विभाजन नहीं चाहता था और वह तबका मुस्लिम लीग को अपना रहनुमा भी नहीं मानता था. हालांकि ब्रिटिश भारत में 1946 के चुनाव में मुस्लिग लीग को 75% मुस्लिम वोट मिले थे,यह इस बात का ऐतिहासिक सबूत है कि मुसलमानों पर मुस्लिम लीग का प्रभाव था. लेकिन कई इतिहासकार यह मानते हैं कि आम भारतीय मुसलमान अपनी रोजी-रोटी में व्यस्त था, उसे धर्म के आधार पर अलग देश से ज्यादा दूसरे चीजों की चिंता थी. वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और राजनेता एम जे अकबर का कहना है कि 1946 जो वोटिंग हुई थी, उसमें वोटिंग राइट्स यानी वोट देने का अधिकार सिर्फ 9% लोगों को प्राप्त था. उस वक्त Separate Electorate (अलग निर्वाचक मंडल) की व्यवस्था थी. अलग निर्वाचक मंडल में होता यह था कि मुसलमान प्रत्याशी को सिर्फ मुसलमान ही वोट करेंगे, बावजूद इसके मुस्लिम लीग पंजाब में सरकार नहीं बना पाई थी. ऐसे में यह कहना कि मुस्लिम लीग को सभी मुसलमानों का समर्थन प्राप्त था, यह गलत है. सिर्फ 9% लोगों के समर्थन को पूरे मुसलमानों का समर्थन नहीं माना जा सकता है. भारत का विभाजन राजनीतिक साजिश का परिणाम था, जिसे मुस्लिम लीग ने रचा था ना कि आम भारतीय मुसलमान ने. ब्रिटिश सरकार की रिपोर्ट्स (जैसे माउंटबेटन प्लान और वाइसरॉय की फाइलें) में उल्लेख है कि मुस्लिम लीग के नेतृत्व ने दावा किया कि उनका समर्थन व्यापक है, लेकिन इन दस्तावेजों में आम मुसलमानों की व्यक्तिगत राय का कोई सर्वेक्षण नहीं है, इस वजह से भी यह स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि आम भारतीय मुसलमान मुस्लिम लीग के साथ था और उनके टु नेशन थ्योरी को समर्थन देते थे.
सिर्फ ऊंची जाति के अमीर मुसलमानों ने किया था पाकिस्तान का समर्थन
आजादी से पहले सिर्फ उच्च वर्ग के लोगों को वोटिंग का अधिकार था. मुसलमानों में यह अधिकार सिर्फ 9% लोगों को प्राप्त था, ऐसे में सिर्फ नौ प्रतिशत लोगों की राय पूरे मुस्लिम समाज की राय नहीं हो सकती थी. डाॅशम्सुल इस्लाम जो एक इतिहासकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं, उन्होंने प्रभात खबर से बात करते हुए कहा कि बेशक मुस्लिम लीग ने भारत का बंटवारा करवाया है, इसमें कोई दो राय नहीं है. मोहम्मद अली जिन्ना जो इस्लाम के कायदे कानून नहीं मानता था, उसने धर्म और उर्दू भाषा के नाम पर देश का बंटवारा करवाया. दरअसल जिन्ना ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए देश का बंटवारा करवाया, उसे देश के आम मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं था. दक्षिण भारत में भी बड़ी संख्या में मुसलमान थे, लेकिन उनका जिक्र जिन्ना ने नहीं किया, क्योंकि उसे आम मुसलमानों का हित नहीं चाहिए था. अल्लाह बख्श जैसे नेता जो सिंध के प्रधानमंत्री (उस वक्त मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था) थे उन्होंने जिन्ना के पाकिस्तान के प्रस्ताव का जमकर विरोध किया था. उनका तर्क था कि भारत के मुसलमानों का हित बंटवारे में नहीं, बल्कि हिंदुओं और मुसलमानों के संयुक्त संघर्ष में है. वे मानते थे कि मुस्लिम लीग सांप्रदायिकता को बढ़ावा देकर मुसलमानों को बाकी देश से अलग-थलग कर रही है. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान बनने से मुसलमानों की ताकत बिखर जाएगी. मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेता ने भी बंटवारे का काफी विरोध किया था, हुसैन अहमद मदानी जो एक मुस्लिम विद्वानों थे उन्होंने भी पाकिस्तान का विरोध किया था. इस वजह से मैं खुलकर यह कहना चाहता हूं कि पाकिस्तान का जन्म आम भारतीय मुसलमानों की राय से नहीं बल्कि जिन्ना की राजनीतिक साजिश से हुआ था. वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई भी यह मानते हैं कि एक आम भारतीय मुसलमान जो अमीर नहीं था वह भारत का बंटवारा नहीं चाहता था. जिन्ना जैसे मुसलमानों ने अपने राजनीतिक हित के लिए देश का बंटवारा करवाया. उन्होंने अपने हित के लिए देश के गरीब मुसलमानों को डराया-धमकाया था, यह भी एक सच्चाई है. मुसलमानों के पास वयस्क मताधिकार नहीं था, इसलिए यह कहना कि आम भारतीय मुसलमान बंटवारा चाहता था, गलत है. आम भारतीय मुसलमान देशभक्त था और वह अपनी जमीन से अलग-नहीं होना चाहता था, लेकिन उनसे त्रासदी झेलनी पड़ी.
सिर्फ सीमा क्षेत्र में हुआ था जनमत संग्रह
1947 में बंटवारे को लेकर जो भी जनमत-संग्रह हुआ था, वह सिर्फ उन्हीं क्षेत्रों में हुआ था जहां यह तय करना था कि वे भारत में रहेंगे या पाकिस्तान में जाएंगे यानी मुख्यतः सीमा और विवादित इलाकों में जनमत संग्रह हुआ था. उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत ब्रिटिश भारत का यह प्रांत अफगानिस्तान से सीमा से सटा हुआ था और जनसंख्या में मुसलमान बहुल था, लेकिन यहां कांग्रेस का मजबूत प्रभाव था. इस वजह से यहां जनमत संग्रह कराया गया ताकि यह पता चल सके कि यह क्षेत्र पाकिस्तान में जाएगा या नहीं. असम के सिलहट में भी में जनमत संग्रह हुआ था. बाकी जगह यह फैसला राजनीतिक नेताओं, प्रांतीय विधानसभाओं और ब्रिटिश सरकार की योजना के तहत हुआ था.
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