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कोरोना संक्रमण काल में धर्म

स्पष्ट है कि मनुष्य ने धर्म को अपनी पहचान, भय और व्यग्रताओं को पहचानने और उसके साथ तारतम्य बैठाने के क्रम में अन्वेषित किया और विभिन्न प्रारूपों में स्थापित किया.

शशांक चतुर्वेदी, असिस्टेंट प्रोफेसर, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, पटना केंद्र shashank.chaturvedi@tiss.edu

महामारी और धर्म का आपसी संबंध क्या हो सकता है? यह प्रश्न तब और गहरा हो जाता है, जब हम पाते हैं कि कोरोना जैसी महामारी ने, न सिर्फ शारीरिक बल्कि मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी व्यक्ति और समाज को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है. व्यग्रता और भय, आज दोनों ही हमारे जीवन के हर क्षण में गहरे व्याप्त हैं. ऐसे मे स्वाभाविक है कि संकटग्रस्त समाज में हम धर्म की उपस्थिति और भूमिका को संज्ञान में लें और उसकी पड़ताल करें.

यह पड़ताल ऐसे समाज की है, जो सैद्धांतिक रूप में ‘आधुनिक’ है और समय-समय पर समाज वैज्ञानिकों द्वारा ‘सेक्युलर एज’ और ‘एज ऑफ रीजन’ से संबोधित किया गया है. हालांकि, 1980 के दशक से चिंतकों में यह सुगबुगाहट होने लगी है कि धर्मनिरपेक्षीकरण के अथक प्रयासों के बीच मनुष्य की चेतना से धर्म का विलोप हुआ ही नहीं. कुछ विद्वान ‘रिटर्न ऑफ रिलिजन’ की बात भी करने लगे हैं. कोरोना संकट के मध्य तकरीबन सभी धर्मो के हवाले से ऐसी खबरें आती रहीं, जिसने एक बार फिर से महामारी और धर्म के अंतर्संबंधो को विमर्श में वापस ला दिया है.

दक्षिण कोरिया में ‘पेशेंट 31’ का मामला हो, भारत में तबलीगी जमात से जुड़ा विवाद हो या फिर विभिन्न देशों में धार्मिक संस्थाओं द्वारा गरीब-बेसहारा के लिए भोजन की व्यवस्था हो, धर्म की सर्वव्यापकता को संकट के इस क्षण में अस्वीकार नहीं किया जा सकता. सच तो यह है कि महामारी का इतिहास मानवीय सभ्यता के कृषि युग में प्रवेश के साथ ही शुरू हो जाता है.

‘जूनोटिक प्लेग’, ‘प्लेग ऑफ एथेंस’, ‘प्लेग ऑफ साइपिरियन’, ‘ब्लैक डेथ’ हो या बीसवीं सदी के आरंभ में फैला बुबोनिक प्लेग, सभी में समान रूप से धर्म की उपस्थिति दर्ज की गयी है. ऐतिहासिक दस्तावेजों से भी यह सिद्ध होता है कि इन सभी महामारियों ने धार्मिक गुरुओं, विभिन्न धर्मों के अनुयायियों और समाज के अन्य लोगों के प्रति किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया. ओरहान पामुक एक लेख में, इतिहास के सभी महामारियों के समाज और धर्म पर पड़ने वाले प्रभाव में एक आश्चर्यजनक समानता को रेखांकित करते हैं.

डेनियल डेफो के बहुचर्चित उपन्यास ‘अ जर्नल ऑफ प्लेग इयर’, अलेस्संद्रो मंजोनी के उपन्यास ‘द बेथ्रोथेड’ और कामूस के उपन्यास ‘द प्लेग’, सभी सोलहवीं से बीसवीं सदी की महामारियों में लोगों के अंदर व्याप्त भय और चिंता, राज्य द्वारा मृतकों की संख्या छुपाने और समाज में व्याप्त महामारी के प्रति एक प्रकार के ‘सेंस ऑफ डिनायल’ को बखूबी दर्शाते हैं. वहीं दूसरी तरफ, लेखक अपनी रचनाओं में यह भी बताते हैं कि किस प्रकार दैवीय हस्तक्षेप, मृत्यु और मानवीय त्रासदी के मध्य संगठित धर्म के प्रति लोगों में गुस्सा व्याप्त है.

इसी क्रम में सभी चिंतक यह भी बताते हैं कि किस प्रकार महामारियों के मध्य अध्यात्म और अदृश्य के प्रति विश्वास भी बढ़ा. इन सबके मध्य स्थानीय देवी-देवताओं, संत-महात्माओं और धर्म के प्रति समाज में स्वीकार्यता भी बढ़ी. जैसे उत्तर भारत में, कुषाण काल में एक किस्म के अज्ञात उच्च बुखार को शांत करने के लिए बौद्ध परंपरा के ‘हरिति’ की पूजा का प्रचलन बढ़ा. इसी प्रकार, कालांतर में सर्प दंश से बचाव के लिए मनसा देवी और चेचक के उपाय के तौर पर शीतला माता की पूजा-अर्चना स्थापित हुई. यह भी सत्य है कि यूनानी, सिद्ध, आयुर्वेदिक आदि चिकित्सा पद्धति अलग-अलग धर्मों में लंबे समय तक चले संवाद से उभरी.

स्पष्ट है कि मनुष्य ने धर्म को अपनी पहचान, भय और व्यग्रताओं को पहचानने और उसके साथ तारतम्य बैठाने के क्रम में अन्वेषित किया और विभिन्न प्रारूपों में स्थापित किया. इसी प्रकार, उसने स्वयं को तलाशने और प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने के क्रम में धर्म की परिधि में स्वयं को बांधा होगा. उसका यह धर्म ही शायद विनोबाजी का ‘समन्वय धर्म’ का रूप लेता है. जिसमें स्वयं के साथ-साथ, अन्य मनुष्य, प्रकृति, जीव-जंतुओं तथा ज्ञात-अज्ञात के साथ ‘समन्वय’ पर जोर दिया गया.

डयूक विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान और मेडिसिन के प्रोफेसर हेरोल्ड कोएंग के तीन दशकों से अधिक के शोध निष्कर्षों से पता चलता है कि, किसी भी आस्था और अध्यात्म से स्वयं को जुड़ा पाने वाले मरीज, किस प्रकार अन्य की तुलना में कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से लड़ने और उसके दुष्प्रभावों से उभरने में ज्यादा सफल रहे. कोएंग के अनुसार, वर्तमान में दक्षिणी गोलार्ध के वासी, पश्चिमी देशों की तुलना में कोरोना महामारी के मानसिक दुष्प्रभावों से जल्द निजात प्राप्त कर लेंगे. इसका आधार वे एशिया और अफ्रीका के देशों में धर्म का जीवनदर्शन में घुले-मिले होना बताते हैं.

अमेरिकी मेडिकल एसोसिएशन सहित विश्व की कई चिकित्सा संस्थाएं और इनसे जुड़े शोध संस्थानों ने कोविड महामारी के मध्य ही धर्म और चिकित्सा विज्ञान के बीच संवाद की एक नयी पहल शुरू की है. भारत में भी ऐसे कुछ प्रयास देखने में आ रहे हैं. ऐसे में विज्ञान और सामाजिक विज्ञान दोनों के लिए यह चुनौती होगी कि किस प्रकार व्यक्ति, प्रकृति, समाज और धर्म के बीच ऐसा समन्वय स्थापित किया जाये, जो सभी के लिए समान मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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