Pakistan News : पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर के 17 अप्रैल, 2025 के उत्तेजनात्मक भाषण को 22 अप्रैल के पहलगाम के नृशंस हत्याकांड से जोड़कर देखा जा रहा है. इस्लामाबाद में बोलते हुए उन्होंने कहा था कि ‘हम जीवन के हर संभव पहलू में हिंदुओं से अलग हैं. चाहे आप कहीं भी रहें, याद रखें कि आपकी जड़ें एक उच्च सभ्यता, महान विचारधारा और गौरवपूर्ण पहचान से चिह्नित है. कश्मीर हमारे गले की नस रहेगा, हम इसे नहीं भूलेंगे. हम अपने कश्मीरी भाइयों को उनके ऐतिहासिक संघर्ष में नहीं छोड़ेंगे.’
विदित हो कि पहलगाम हमले के बाद भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के जरिये पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर हमला कर उन्हें नष्ट करने का कार्य किया. कमजोर शहबाज शरीफ के नेतृत्व वाली सरकार ने मुनीर की न सिर्फ प्रशंसा की, बल्कि 21 मई को सेना के सर्वोच्च पद ‘फील्ड मार्शल’ पर उसे पदोन्नत भी किया. मुनीर फील्ड मार्शल अयूब खान के बाद पाकिस्तान के इतिहास में दूसरे फील्ड मार्शल हैं.
मुनीर को फील्ड मार्शल का दर्जा दिया जाना इमरान खान को किनारे रखने तथा नागरिक मुखौटा दिखाने का तात्कालिक अनुबंध जैसा है. बीते दिनों इमरान खान मुनीर पर कारावास के दौरान उनकी हत्या की साजिश रचने का आरोप लगा चुके हैं. इस बीच पाकिस्तान सेना के पूर्व मेजर आदिल राजा पाक अखबारों में सुर्खियां बटोरे हुए हैं. उन्होंने दावा किया है कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद तथा भारत में आतंकवादी हमलों की योजना बनाने में उनकी सेना और खुफिया एजेंसी आइएसआइ के हाथ होने के सबूत उजागर होने लगे हैं.
पहलगाम आतंकी हमले में पाक सेना सीधे तौर पर शामिल है और इसके मास्टरमाइंड असीम मुनीर हैं. असीम मुनीर ने एक बड़ी रणनीति के तहत इसे अंजाम दिया है. एक कमजोर राजनीतिक वर्ग, लचीली न्यायपालिका और कमजोर संघीय समझौते के साथ सेना ने इस शून्य को भर दिया है. जनरल मुनीर खुद को नये ताकतवर व्यक्ति के रूप में पेश कर रहे हैं. स्मरण रहे, 2019 में पुलवामा हमले के समय मुनीर आइएसआइ के प्रमुख थे.
पाकिस्तान का इतिहास सैन्य शासकों के षड्यंत्र से भरा पड़ा है. आजादी एवं बंटवारे के तुरंत बाद लियाकत अली पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने. वे पाक के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना के विश्वासपात्रों में थे. वर्ष 1951 में उनकी नृशंस हत्या के बाद ख्वाजा निजामुद्दीन ने प्रधानमंत्री का कार्यभार संभाला. वे दो वर्ष का भी कार्यकाल पूरा नहीं कर सके जब 17 अप्रैल, 1953 को जनरल मलिक गुलाम मोहम्मद ने उन्हें बर्खास्त कर दिया. मोहम्मद अली बोगरा अगले प्रधानमंत्री नियुक्त हुए, पर उनका कार्यकाल तीन वर्ष भी नहीं हुआ था कि 1955 में उन्हें पद से हटना पड़ा.
इसके बाद मुस्लिम लीग, अवामी लीग और रिपब्लिकन पार्टी के संयुक्त मोर्चा से चौधरी मोहम्मद अली प्रधानमंत्री बने, पर एक वर्ष बाद ही पद त्यागना पड़ा और हुसैन सुहरावर्दी उनके स्थान पर निर्वाचित हुए. उनका कार्यकाल मुश्किल से एक वर्ष ही रहा. इसके बाद निर्वाचित हुए इब्राहीम चुंदरीगर व सर फिरोज अहमद में से कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया. जनरल अयूब खान अक्तूबर, 1958 को मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक नियुक्त किये गये. जल्द ही अयूब खान ने खुद को पाकिस्तान का राष्ट्रपति घोषित कर दिया. उन्होंने राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा को पद और देश दोनों छोड़ने पर मजबूर कर दिया. पर जन दबाव के आगे झुकते हुए 24 मार्च, 1969 को सत्ता सेना के दूसरे जनरल याह्या खान को सौंप दी.
याह्या खान मार्शल लॉ की घोषणा कर 13 अप्रैल, 1969 को राष्ट्रपति बन गये. उन्हें 1971 में पीपुल्स पार्टी के नेता भुट्टो को सत्ता सौंपनी पड़ी. परंतु सेना सत्ता सुख भोगने की आदी हो चुकी थी, लिहाजा जुलाई 1977 में जनरल जिया-उल-हक ने भुट्टो को सत्ता से बेदखल कर दिया. जिया-उल-हक की विमान दुर्घटना में मृत्यु के बाद ही पाक में लोकतंत्र की वापसी हो सकी. परंतु बाद में नवाज शरीफ की चुनी सरकार को हटाकर जनरल परवेज मुशर्रफ राष्ट्रपति बन गये.
वर्ष 1997 में नवाज शरीफ पुन: भारी बहुमत से सत्ता में लौटे, पर परवेज मुशर्रफ ने तख्तापलट कर मार्शल लॉ लागू कर दिया. वर्ष 2004 के चुनाव में पुन: मुस्लिम लीग के जफरुल्लाह खान जमाली सत्तारूढ़ हुए, पर उन्हें भी सत्ता छोड़ना पड़ा. वर्ष 2004 में ही शौकत अजीज प्रधानमंत्री बने और तीन वर्ष से अधिक समय तक पदासीन रहे. यूसुफ रजा गिलानी 2008 में प्रधानमंत्री बने और 2012 तक इस पद पर रहे. नवाज शरीफ आम चुनावों में जीत दर्ज कर तीसरी बार प्रधानमंत्री बने. इस बार वे चार वर्ष से अधिक समय तक पद पर रहे. जुलाई, 2018 में इमरान खान प्रधानमंत्री बने, परंतु सहयोगी दलों के अविश्वास प्रस्ताव का सामना नहीं कर पाये.
वे लगभग चार वर्ष तक पद पर रहे. अगस्त, 2023 में शहबाज शरीफ प्रधानमंत्री बने. आज परिस्थितियां पुन: संकट के दौर में हैं. इमरान खान वहां के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं, पर जेल में बंद हैं. शहबाज जनता का विश्वास खो चुके हैं. असीम मुनीर भावनात्मक एवं उत्तेजनात्मक भाषणों के जरिये अखबारों में जिस तरह सुर्खियां बटोर रहे हैं, यह रास्ता पुन: सैनिक शासन की ओर जाता है. भविष्य में यदि मुनीर की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जोर पकड़ती हैं, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त होने में देर नहीं लगेगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)