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राष्ट्रवादी भावना की प्रतिध्वनि है ‘धुरंधर’, पढ़ें प्रभु चावला का आलेख

Dhurandhar: वर्षों से भारतीय सिनेमा का दर्शकों से रिश्ता टूट गया था. सिनेमा के हमारे नैतिक अभिभावक भांप ही नहीं पा रहे थे कि दर्शक क्या देखना चाहते हैं. देशभक्ति को या तो नेपथ्य में रखा जाता था या इसे पुराना विषय माना जाने लगा था. 'धुरंधर' ने इस परिदृश्य को बदल दिया. राष्ट्रवाद के उभार को 'धुरंधर' में वह आत्मविश्वास मिला, जिसमें किसी का अपमान नहीं है, न ही इस गर्व में कोई पूर्वाग्रह है. इसके दर्शक भी उतने ही परिष्कृष्त हैं, जो देशभक्ति की प्रशंसा तो करते हैं, पर नफरत नहीं फैलाते.

Dhurandhar: इस साल का अंत रुपहले पर्दे पर एक गर्जन के साथ हो रहा है और इसकी प्रतिध्वनि बाकी सब को परिभाषित कर रही है. ‘धुरंधर’ की सफलता सिर्फ सिनेमाई नहीं, बल्कि सभ्यतागत सफलता भी है. इसने सिर्फ रिकॉर्ड नहीं तोड़े, इसने देश का भावनात्मक लहजा भी तय किया है. जब दर्शक इसकी सफलता पर अभिभूत होकर खड़े हुए, तब वे सिर्फ इस फिल्म के क्राफ्ट का आनंद नहीं मना रहे थे, वे उस भावना पर भी मुहर लगा रहे थे, जो लंबे समय से स्वर की तलाश में थी. रिलीज होने के 21वें दिन ‘धुरंधर’ ने दुनियाभर में 1,000 करोड़ रुपये का कीर्तिमान छू लिया और इस साल की सबसे अधिक कमाने वाली सर्वकालीन पांच फिल्मों की श्रेणी में शामिल हो गयी. यह उपलब्धि बताती है कि भारत का राष्ट्रवादी मूड राजनीति से लोकप्रियतावादी कल्पना में शिफ्ट हो गया है, और फिल्मों के दर्शक देश के भावनात्मक विमर्श का अनुकरण करने के बजाय उसे दिशा दे रहे हैं.

देश के जिस सबसे बड़े उद्योग पर लंबे समय तक उधारी का लहजा और महानगरीय सूत्रों का आरोप लगता था, वह एकाएक राष्ट्रवादी मूड की प्रतिध्वनि बन गया है. जिस कारण से यह उपलब्धि और महत्वपूर्ण हो गयी है, यह दरअसल वह इकोसिस्टम है, जिसका खुलासा इसने किया है. पूरे 2025 में बॉलीवुड में ब्लॉकबस्टर्स का इंतजार किये बगैर लगातार शानदार भूमिकाएं सामने आयीं. अकेले इस साल के पूर्वार्ध में 17 फिल्मों ने घरेलू बाजार में 100 करोड़ का आंकड़ा पार किया, जबकि 2024 के पूर्वार्ध में ऐसी 10 फिल्में ही आयी थीं. दशकों तक हिंदी सिनेमा का सालाना चक्र इस तरह था कि दो या तीन हिट फिल्मों से पूरे साल का दबाव निकल आता था. वर्ष 2025 में यह स्थिति बदल गयी.

इस वर्ष फिल्म उद्योग ऐसी फिल्मों का गवाह बना, जिन्होंने अपनी मौलिकता, भावनात्मक ईमानदारी और उन मुद्दों को संबोधित करने की इच्छाशक्ति का परिचय दिया, जो फिल्म आलोचकों की सोच के बजाय दर्शकों की इच्छाओं से जुड़ी हैं. पहले ही सप्ताह से ‘धुरंधर’ ब्लॉकबस्टर से ज्यादा ही कुछ साबित हुई. इसके विज्ञापन, इसकी कहन शैली, इसके संवाद और दर्शकों से इसके जुड़ाव ने एक ऐसा माहौल तैयार किया, जो अद्भुत और शानदार था. इसने साबित किया कि देशभक्ति की भावना भौगोलिक और जनसांख्यिकीय सरहदों के पार तक पहुंचती है.

वर्ष 2025 में ‘धुरंधर’ की सफलता इसलिए भी उल्लेखनीय है, क्योंकि फिल्म पटकथाओं में इस साल महत्वपूर्ण बदलाव दिखायी पड़ा. फरवरी में विलक्षण मराठा योद्धा संभाजी के जीवन पर आधारित विकी कौशल की ‘छावा’ ने बॉक्स ऑफिस में 600 करोड़ का आंकड़ा पार किया था. ‘छावा’ ने बताया था कि भारत का इतिहास और भारतीय नायक अब हाशिये के नहीं, मुख्यधारा के लोकप्रिय विषय हैं. ‘धुरंधर’ ने इसे ही सिनेमैटिक क्राफ्ट में प्रतीकात्मकता के साथ दिखाया है. फिल्म की शुरुआत एक सुस्पष्ट सैन्य कार्रवाई से हुई, जो इस जोश को जज्बा देते हुए आगे बढ़ती रही. रुपहले पर्दे पर लंबे समय से व्यंग्य और नैतिक ऊहापोह के अभ्यस्त दर्शकों को इस स्पष्टता ने राहत दी.

वर्षों से भारतीय सिनेमा का दर्शकों से रिश्ता टूट गया था. दरअसल सिनेमा के हमारे नैतिक अभिभावक यह भांप ही नहीं पा रहे थे कि दर्शक क्या देखना चाहते हैं. बड़े प्रोडक्शन हाउसों ने खुद को महानगरीय जीवन बोध तक सीमित कर लिया था. देशभक्ति को या तो नेपथ्य में रखा जाता था या इसे पुराना विषय माना जाने लगा था. ‘धुरंधर’ ने इस परिदृश्य को बदल दिया. सिनेमा में बदलाव के लिए एकदम अनुकूल माहौल था. देश की राजनीतिक और सांस्कृतिक भाषा 2019 से ही सतत बदलाव से गुजर रही थी. राष्ट्रीय भावनाएं जब ज्यादा प्रभावी तरीके से सामने आने लगीं, तो संभ्रांत प्रगतिशीलता, शहरी विडंबना, वैश्विक आकांक्षा और नैतिक तटस्थता जैसी भावनाएं सिनेमा के नेपथ्य में चली गयीं.

इससे पहले ‘उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक’, ‘द कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फिल्मों की सफलताओं ने बदलाव का संकेत दिया था, लेकिन ‘धुरंधर’ ने इसे संस्थागत रूप दिया है. यह एक फिल्म भर नहीं है, बल्कि मुख्यधारा में नयी भावनात्मक फिल्मों के लिए लॉन्चिंग पैड है. इसका प्रभाव इतना अधिक रहा, जैसे कि अपनी भाषा में बात करने से डर रहे पूरे भारतीय सिनेमा को यह अपनी भाषा और भावना में उतरने का निर्देश दे रही हो. अलबत्ता, ‘धुरंधर’ की सफलता को आक्रामकता की जीत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. ‘धुरंधर’ की उपलब्धि इसके अभिव्यक्तिकरण में है, इसकी विवादास्पदता में नहीं. निर्देशक आदित्य धर ने बमबारी पर स्पष्टता को तरजीह दी है.

हताशा के बाद नायक की जीत को आक्रामक वर्चस्ववाद के तौर पर नहीं, एक विराट उद्देश्य के प्रति समर्पण के रूप में दिखाया गया है. इसके पाठ को सिनेमा से परे विस्तार मिला है : 2025 में राष्ट्रवाद के उभार को ‘धुरंधर’ में वह आत्मविश्वास मिला, जिसमें किसी का अपमान नहीं है, न ही इस गर्व में कोई पूर्वाग्रह है. आलोचकों ने जैसी आशंका जतायी थी, उसके उलट इसके दर्शक उतने ही परिष्कृष्त हैं, जो देशभक्ति की प्रशंसा तो करते हैं, लेकिन नफरत नहीं फैलाते.

‘धुरंधर’ ने बॉक्स ऑफिस पर सिक्का जमाने से ज्यादा कुछ किया है. यह 2025 में भारत के राष्ट्रवादी बदलाव का सांस्कृतिक उत्प्रेरक बनी है. इसकी प्रतिध्वनि सिनेमा से परे राजनीति, मीडिया, और यहां तक कि दैनिक बातचीत में गूंजती है. इसने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को याद दिलाया है कि कला और मानक से समझौता किये बगैर भी फिल्में देश की सामाजिक भावना से जुड़ सकती है. इसने मूड को आंदोलन में और आंदोलन को मुख्यधारा में रूपांतरित कर दिया है. अब जब 2026 की शुरुआत होने जा रही है, तब ‘धुरंधर’ की प्रतिध्वनि रचनात्मक कल्पना को आकार देती रहेगी.

हालांकि यह भावना इसकी शैलीगत गहराई में विकसित होगी या सिर्फ शोर में तब्दील हो जायेगी, यह देखना शेष है. लेकिन एक चीज तो तय है : 2025 वह वर्ष रहा, जब बॉलीवुड ने नकली वैश्विक आवाजों का अनुकरण करने के बजाय अपनी बात कहनी शुरू की. ‘धुरंधर’ के जरिये भारतीय सिनेमा ने विश्वास करने के अधिकार को फिर से हासिल किया है. और ऐसा करते हुए इसने इस देश को साहस का अनुभव करने के बारे में फिर से बताया है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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