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किसानों के हित पर ज्यादा ध्यान जरूरी

कृषि का पेशा मूल्य नियंत्रण, स्टॉक की सीमा, आयात-निर्यात पर रोक, और बार-बार नीतिगत बदलावों की जंजीर में जकड़ा रहता है. तकनीकी तौर पर यह भले राज्य का विषय हो, मगर राज्यों के साथ-साथ केंद्र भी इसमें हस्तक्षेप करता रहता है.

केंद्र सरकार ने इस वर्ष दो लाख टन अतिरिक्त प्याज खरीदने की घोषणा की है. इससे इस साल प्याज का बफर स्टॉक पहले के घोषित तीन लाख टन के लक्ष्य से बढ़ कर पांच लाख टन हो जाएगा. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह घोषणा प्याज के निर्यात पर 40 प्रतिशत का निर्यात शुल्क लगाने के एक दिन बाद हुई. यानी आसान शब्दों में समझें तो सरकार ने निर्यात सीमित कर घरेलू सप्लाई बढ़ा दी, इससे कीमतें गिर गयीं, और इसके फौरन बाद सरकार ने सस्ते प्याज खरीद कर सुरक्षित भंडार बढ़ा लिया.

क्या इससे बाजार के साथ छेड़छाड़ की बू नहीं आती? क्या ऐसा नहीं लगता कि सरकार ने जबरन किसानों को कम कीमतों पर सरकार को प्याज बेचने के लिए मजबूर कर डाला? एक दिग्गज पूर्व कृषि मंत्री ने निर्यात पर शुल्क का विरोध करते हुए कहा कि इससे किसानों को नुकसान होगा. वह ऐसे प्रदेश से आते हैं जो देश के कुल प्याज के एक तिहाई हिस्से की सप्लाई करता है. किसानों ने इसका विरोध भी शुरू कर दिया है, मगर उसका कोई असर नहीं हो रहा. किसान पहले भी ऐसे अनुभवों से गुजर चुके हैं.

प्याज की बढ़ती कीमतें सरकार के लिए सिरदर्द बनती जा रही हैं. घरों के बजट में प्याज का खर्च बहुत कम लग सकता है. मगर यह राजनेताओं को रुला सकता है, और इसकी कीमतों में अचानक आई उछालों से सरकारें गिर चुकी हैं. वर्ष 2020 के सितंबर में प्रस्तावित कृषि कानून याद हैं? प्रस्तावित तीन कानूनों में से एक कीमतों पर नियंत्रण को पूरी तरह खत्म करने और भंडार की सीमा को खत्म करने के बारे में था. साथ ही, उनमें निर्यात या आयात पर अचानक पाबंदी लगाए जाने को भी खत्म करने का सुझाव दिया गया था.

ये बिल जिस सप्ताह पेश किए गए थे, ठीक तभी बांग्लादेश जा रहे कई ट्रकों को सीमा पर रोक दिया गया क्योंकि उनमें प्याज लदे थे. तो एक तरफ निर्यात पर रोक लगाने जैसे कदम, और दूसरी तरफ कृषि बाजार का नियमन समाप्त करने की कोशिश करना जैसे कदमों से विरोधाभासी और ईमानदारी की कमी के संकेत मिलते हैं. संभवतः प्याज के निर्यात पर टैक्स का फैसला एक एहतियाती उपाय है, खासकर जबकि लोग टमाटर की बढ़ती कीमतों से पहले ही परेशान हैं.

राष्ट्रीय उपभोक्ता सहकारी संघ और राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ जैसी संस्थाओं ने पहले ही बफर स्टॉक के लिए 15 लाख टन से ज्यादा टमाटर खरीद रखे हैं. वे इन्हें किफायती दरों पर बेच रही हैं. मगर यह सब्सिडी किसकी जेब से दी जा रही है? भारत ने नेपाल से भी टमाटर खरीदे हैं, और शायद दूसरे देशों से भी. भारत में खुदरा महंगाई की दर 7.5 प्रतिशत हो गयी है जो रिजर्व बैंक के 6 प्रतिशत के लक्ष्य से बहुत ऊपर है. महंगाई की दर बढ़ने के सबसे बड़े कारणों में टमाटर भी शामिल है. वैसे सब्जियों की कीमतों का बढ़ना एक मौसमी स्थिति है जिसमें उतार-चढ़ाव आते रहते है. लेकिन, यह मीडिया का ध्यान खींचती हैं.

जैसे एक और कृषि उत्पाद को लें. जुलाई में भारत ने गैर-बासमती सफेद चावल तथा टूटे चावलों के निर्यात पर रोक लगा दी. चावल के कुल निर्यात में इनका हिस्सा 45 प्रतिशत है. इससे हमारे बहुत से व्यापारिक साझीदार नाखुश हुए और उन्हें लगा कि भारत एक गैर-भरोसेमंद सप्लायर है. अफ्रीका और एशिया में कुछ देश ऐसे हैं जो चावल के लिए भारत पर निर्भर हैं और इससे उनकी खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है. क्या सरकार को खाद्य सुरक्षा की चिंता थी? लगता तो नहीं है. तो निर्यात पर रोक का कारण क्या हो सकता है?

मोटे तौर पर ऐसा लगता है कि इसका मकसद इथेनॉल निर्माताओं के हितों की रक्षा लगता है. ऐसा अनुमान है कि 50 से 60 लाख टन टूटे चावल में से 30 लाख टन चावल से इथेनॉल बनाया जाता है. तो निर्यात पर रोक से कार को ईंधन मिल जाता है, मगर इसकी कीमत चावल किसान अपना मुनाफा खोकर चुकाता है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में चावल की कीमतें दशक में सबसे ऊंचे स्तर पर हैं और यह मुनाफा कमाने का एक अच्छा मौका है. मगर हमेशा की तरह घाटा किसानों को ही उठाना पड़ता है.

टमाटर, प्याज या चावल पर लिए गये ये फैसले दिखाते हैं कि कृषि क्षेत्र में सुधार कितने मुश्किल हैं. सबसे पहले, शहरी लोगों को लेकर एक पक्षपाती रवैया रहता है, यानी शहरी उपभोक्ताओं की महंगाई पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है और किसानों के हितों पर कम. ऐसे में किसानों के फायदे वाली सुधार की नीतियों को या तो पलट दिया जाता है या उसके पर कतर दिये जाते हैं.

फिर दूसरा, किसानों को कीमतों के नियंत्रण से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए मुफ्त बिजली-पानी, सस्ते उर्वरक, या कृषि आय पर इन्कम टैक्स में छूट जैसी रियायतें दी जाती हैं. इससे वित्तीय बोझ बढ़ता है. तीसरी बात, कृषि में सरकार की हरकतों का सामना करने के लिए वायदा कारोबार जैसी कोई व्यवस्था नहीं है. वायदा कारोबार को सट्टेबाजी की तरह समझ लिया जाता है और आरोप लगाया जाता है कि इनसे कीमतों में उतार-चढ़ाव आता है. यह बात बिना किसी पुष्टि के मान ली गयी है.

इससे सरकार कृषि उत्पादों की खरीद, उनका स्टोरेज और उनकी खरीद-बिक्री कर बाजार को प्रभावित करना जारी रखती है. ऐसा करते हुए वह एकाधिकारी रवैया अपनाने में जरा भी नहीं हिचकती. ऐसे में सरकार को प्रतिस्पर्धा विरोधी और प्रभुत्ववादी ठहराकर अदालत में कौन चुनौती दे सकता है? और इस तरह कृषि का पेशा मूल्य नियंत्रण, स्टॉक की सीमा, आयात-निर्यात पर रोक, और बार-बार नीतिगत बदलावों की जंजीर में जकड़ा रहता है.

तकनीकी तौर पर यह भले राज्य का विषय हो, मगर राज्यों के साथ-साथ केंद्र भी इसमें हस्तक्षेप करता रहता है. किसान सब्सिडी में लद जाते हैं. कर्जों की माफी जैसे कदमों से वित्तीय समस्याएं भी जन्म लेती हैं और पर्यावरण संकट भी खड़ा हो सकता है. पंजाब में मिट्टी की उर्वरता कम होती गयी क्योंकि वहां ऐसे खादों का जमकर इस्तेमाल हो रहा है जिनपर भारी सब्सिडी दी जाती है.

कृषि के लिए नीतियां बनाते समय हमने जो जाल बुने हैं उनमें हम इस कदर फंस चुके हैं कि उनसे निकलना मुश्किल होता जा रहा है. बाजार के सुचारू संचालन के लिए बड़े पैमाने पर सुधार और सरकारी हस्तक्षेप में यथासंभव कमी के साथ-साथ बाजार की प्रक्रिया में किसानों की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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