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1857 का वह फौलादी शेर

मौलवी अहमदउल्ला शाह ने आगरा व अवध प्रांत में घूम-घूम कर क्रांति की ज्वाला जगायी. कई इतिहासकारों ने लिखा है कि लखनऊ के अंदर क्रांति के सबसे योग्य नेता मौलवी ही थे.

अठारह सौ सत्तावन में लड़े गये देश के महान स्वतंत्रता संग्राम में अवध के सबसे बड़े नायक मौलवी अहमदउल्ला शाह का आज 164वां शहादत दिवस है. यह दिवस इस अर्थ में बहुत खास है कि इस बार हमारे पास उन्हें याद करने के दो अतिरिक्त बड़े कारण हैं. पहला यह कि देश में राजनीतिक कारणों से पैदा की जा रही सांप्रदायिक घृणा के बीच नयी पीढ़ी का यह जानना पहले से ज्यादा जरूरी हो चला है कि उस संग्राम को हिंदुओं व मुसलमानों ने मिल कर लड़ा था और अंग्रेज लाख जतन करके भी उनकी एकता खंडित नहीं कर पाये थे.

दूसरा कारण यह कि अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के सर्वोच्च न्यायालय के नौ नवंबर, 2019 फैसले के मुताबिक मुस्लिम पक्ष को जो पांच एकड़ भूमि दी गयी है, उस पर निर्माणाधीन मस्जिद को इन्हीं मौलवी अहमदउल्ला शाह का नाम दिया गया है. मस्जिद निर्माण के लिए बने ट्रस्ट को मस्जिद के साथ जोड़ने के लिए ऐसी शख्सियत के नाम की तलाश थी, जो दोनों समुदायों के बीच पैदा हुई दूरियों की जगह सद्भाव का आधार बन सके. ट्रस्ट को मौलवी से बेहतर कोई नाम नहीं मिला.

साल 1857 में मौलवी ने अपनी संगठन शक्ति को शंकरपुर (रायबरेली) के राणा वेणीमाधो सिंह की रणशक्ति के साथ मिला कर हिंदू-मुस्लिम एकता की बेल को इतना सींचा था कि उसमें सब कुछ साझा हो गया था. जानकारों के अनुसार, मौलवी देश के पहले ऐसे शख्स थे, जिनके द्वारा बांटे गये बगावत के पर्चे में अंग्रेजों को काफिर कहा गया था. उन दिनों छावनी-छावनी और शहर-शहर साधु-फकीरों, सिपाहियों व चौकीदारों के जरिये रोटी व कमल का जो फेरा लगता था, वह भी मौलवी की ही सूझ थी.

किसी गांव या शहर में बागियों की तरफ से जो रोटियां आती थीं, उन्हें खा कर वैसी ही दूसरी ताजा रोटियां बनवा कर दूसरे गांवों या शहरों को रवाना कर दी जाती थीं. रोटियां खाने वालों के लिए इसका अर्थ होता था कि हम भी गदर में शामिल हो गये हैं. इसके लिए जाति व धर्म का कोई भेदभाव नहीं था. हम जानते हैं कि 1857 में इस संग्राम की शुरुआत 31 मई को होनी थी, मगर मेरठ के सिपाहियों का खून दस मई को ही उबाल खा गया.

यह उबाल अवध पहुंचा, तो लगा कि अब अंग्रेजी राज का कोई नामलेवा नहीं बचेगा. कई लड़ाइयां हारने के बाद अंग्रेज मौलवी को ‘फौलादी शेर’ कहने लगे थे. अवध की पुरानी राजधानी फैजाबाद को मुख्य कर्मभूमि बनाने के कारण मौलवी ‘फैजाबादी’ भी कहे जाते थे. वे जब भी किसी अभियान पर निकलते, उनके आगे-आगे डंका या नक्कारा बजता रहता था. इसलिए कुछ लोग उन्हें नक्कारशाह व डंकाशाह भी कहते हैं.

वे एक सूफी संत की इस शिक्षा को अपने जीवन का उद्देश्य बताते थे कि सीने में सांस रहते नाइंसाफी मंजूर नहीं करना है. फरवरी, 1857 में उन्होंने फैजाबाद में अपना सशस्त्र जमावड़ा शुरू किया, तो सशंकित अंग्रेजों ने उनसे हथियार सौंप देने को कहा. वे नहीं माने, तो उनकी गिरफ्तारी के आदेश दे दिये गये. अंग्रेजी फौज ने 19 फरवरी, 1857 को उन्हें न सिर्फ पकड़ लिया, बल्कि जंजीरों में बांध कर फैजाबाद शहर में घुमाया.

बाद में मुकदमे का नाटक कर उन्हें फांसी की सजा सुना दी गयी. लेकिन आठ जून, 1857 को बागी देसी फौज ने जेल पर हमला कर मौलवी को छुड़ा कर अपना मुखिया चुन लिया. मौलवी ने इस फौज की कमान संभाली और फैजाबाद को आजाद कराने के बाद राजा मान सिंह को उसका शासक बनाया. गौरतलब है कि मान सिंह को शासक बनाना भी उनके हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयत्नों के ही तहत था.

बाद में मौलवी ने तत्कालीन आगरा व अवध प्रांत में घूम-घूम कर क्रांति की ज्वाला जगायी. कई इतिहासकारों ने लिखा है कि लखनऊ के अंदर क्रांति के सबसे योग्य नेता मौलवी ही थे. होम्स ने मौलवी को ‘उत्तर भारत में अंग्रेजों का सबसे जबरदस्त दुश्मन बताया है. कई बार बागी सेना को पीछे हटना पड़ता, तो मौलवी उसे छापामार शैली में अंग्रेजों से भिड़ा देते. उन्होंने 15 जनवरी, 1858 को गोली से घायल होने और 21 मार्च, 1858 को लखनऊ के पतन के बाद भी शहर के केंद्र में अंग्रेजी सेना से दो-दो हाथ किये. अंग्रेज छह मील तक पीछा करके भी उनके पास नहीं फटक सके.

स्वतंत्रता संग्राम विफल हो गया, तो भी मौलवी शाहजहांपुर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बना कर अंग्रेजों की नाक में इस कदर दम करते रहे कि उन्होंने मौलवी का सिर लाने वाले को पचास हजार रुपये देने का एलान कर दिया.

इन्हीं रुपयों के लालच में शाहजहांपुर की पुवायां रियासत के विश्वासघाती राजा जगन्नाथ सिंह के भाई बलदेव सिंह ने 15 जून, 1858 को धोखे से गोली चला कर मौलवी की जान ले ली. उस समय वे अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में मदद मांगने उसकी गढ़ी पर गये थे. अंग्रेज कलेक्टर ने बलदेव से मिले मौलवी के सिर को अपमानपूर्वक शाहजहांपुर कोतवाली के फाटक पर लटकवा दिया, तो कुछ देशभक्तों ने जान पर खेल कर मौलवी का सिर वहां से उतारा और पास के लोधीपुर गांव के एक छोर पर श्रद्धा व सम्मान के साथ दफन कर दिया. वहीं खेतों के बीच आज भी मौलवी की मजार है.

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