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अंकों से सफलता के मापदंड तय नहीं होते

समय आ गया है कि इस विषय पर गंभीरता से विचार किया जाए और अंकों की गलाकाट प्रतियोगिता से इतर स्कूली शिक्षा का एक नया रूप गढ़ा जाए, जहां परीक्षा में अच्छे अंक पाने की रणनीति पर चर्चा न हो

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड तथा विभिन्न राज्यों की बोर्ड परीक्षाओं के परिणामों के बीच विशेषज्ञ कई पूर्वानुमान लगाते हैं, जिनकी सत्यता के संबंध में कुछ भी कहना असंभव है, परंतु एक संभावना, जिसके बारे में बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर आमजन तक सशंकित रहते हैं और जो कभी गलत सिद्ध नहीं होती, वह है ‘परीक्षा परिणामों के पश्चात विद्यार्थियों द्वारा अपनी इहलीला समाप्त कर लेना.’ परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद हर वर्ष अनेक विद्यार्थी मनमाफिक अंक न मिलने पर निराशा में डूब अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं.

क्या यह दुखद नहीं कि हमारी सामाजिक व्यवस्था तथा परीक्षा पद्धति विद्यार्थियों के लिए जीवन-हंता बन चुकी है और हम किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े यह सब देख रहे हैं. इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि भारत की संपूर्ण शिक्षा पद्धति उन तीन घंटों को समर्पित है, जो परीक्षा देते हुए विद्यार्थी बिताते हैं. ये तीन घंटे बच्चों के भविष्य के नीति निर्धारक बन घोषित करते हैं कि बच्चों का भविष्य उज्ज्वल है या नहीं.

सबसे दुखद स्थिति वह होती है जब कम अंक लाने वाले बच्चों को उनके अभिभावकों द्वारा निरंतर उनकी कमतरी का एहसास कराया जाता है, कहा जाता है कि वह स्वयं ही नहीं पिछड़े हैं, उनके कारण उनके अभिभावकों को भी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा है. सफलता के मापदंडों पर पिछड़ने से कहीं अधिक पीड़ा बच्चों को अपने अभिभावकों की इस प्रतिक्रिया से होती है. कम अंक लाने वाले बच्चे केवल निराश ही नहीं होते, उनके सामने यह यक्ष प्रश्न भी होता है कि क्या वे वाकई काबिल नहीं हैं?

या फिर उनके प्रयासों में कहीं कमी रह गयी? दोनों ही प्रश्न घातक हैं, क्योंकि इनका उत्तर सकारात्मक हो या नकारात्मक, इसकी परिणति अवसाद या नैराश्य है. हमारी शिक्षा व्यवस्था ने सफलता के अर्थ को इतना संकुचित कर दिया है कि हजारों बच्चे अवसाद, डर और आशंकाओं के बीच जीने को विवश हैं. हमने अपनी संपूर्ण सोच को उस दायरे में कैद कर लिया है, जहां विद्यालय व्यवस्था पाठ्यक्रम निर्धारित अध्ययन पद्धति का मोर्चा थामे पाठ्य-पुस्तकों से निर्देशित होती है.

फिनलैंड, सिंगापुर, जापान और जर्मनी ऐसी शिक्षा पद्धति के विरोधी हैं. वर्ष 1947 में जब जापान ने शिक्षा सुधार के लिए शिक्षा को मूल अधिकार कानून बनाया था, तो उसके तहत बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण की एक रूपरेखा निर्मित की गयी थी. कहा गया कि ‘शिक्षा का अर्थ अपरोक्ष रूप से व्यक्ति को काबू करना नहीं, बल्कि सारे समाज के लिए जवाबदेह बनाना है.’ हमारी शिक्षा पद्धति समस्या केंद्रित न होकर उत्तर केंद्रित है, जो प्रश्नों के ‘निश्चित उत्तरों’ की अपेक्षा कर विद्यार्थियों के मस्तिष्क को कुंद कर रही है.

जो अभिभावक बच्चों को साइकिल चलाना सिखाते समय उसके गिरने पर धैर्य नहीं खोते, क्योंकि वे जानते हैं कि यह सीखने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, वही स्कूली परीक्षाओं के प्रथम चरण से ही सर्वोत्तम परीक्षा परिणामों को अपरिहार्य क्यों बना देते हैं? क्यों यह भरोसा नहीं करते कि उनके बच्चों की असफलता स्थाई नहीं है. जॉन होल्ट ने अपनी पुस्तक ‘हाउ चिल्ड्रन लर्न’ में एक उदाहरण दिया. ‘लंदन के हॉलैंड पार्क में ढेरों पेड़ थे, जिनमें रस्सियां लटक रही थीं. बच्चे उन पर झूल सकते थे.

होल्ट ने पार्क की देखरेख करने वालों से पूछा कि वहां खेलते समय कितने बच्चों को चोट लगती है. उन्होंने कहा कि जब से वयस्कों के पार्क में जाने पर रोक लगायी गयी है, तब से कोई बच्चा घायल नहीं हुआ है. बड़ों से सावधानी की बातें सुनते-सुनते बच्चे बौखला जाते हैं और सामर्थ्य से ज्यादा करने की जिद में गिर जाते हैं. अपने बच्चों को उनके सामर्थ्य से अधिक अपनी सोच के मुताबिक ढालने के प्रयास में हम बच्चों की रुचि, उनका आत्मविश्वास सब भूल जाते हैं.

बच्चे जब कोई कार्य आरंभ करते हैं, तो उनके मन में सफलता-असफलता नहीं होती, वे तो केवल अपनी रुचि और उससे प्राप्त उल्लास का पीछा करते हैं, परंतु जब वयस्कों को खुश करना महत्वपूर्ण बन जाता है, तभी सफलता और असफलता के बीच गहरी खाई खुद जाती है. परीक्षा कब और किस रूप में होनी चाहिए, यह भी विचारणीय है, क्योंकि प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर परीक्षा बच्चों के मध्य तुलनात्मक स्थिति को उत्पन्न करती है, जो बच्चों के हित में नहीं है.

जॉन होल्ट ने पुस्तक ‘हाउ चिल्ड्रन फेल’ में लिखा है कि बच्चों को ऐसी समस्याएं एवं प्रश्न दिये जाएं कि उनके फल स्वचालित मशीन की तरह न ढूंढे जा सकते हों. अर्थात, बच्चे ने जो समझा है, उसे शब्दों में लिख सके, उसके लिए उदाहरण दे सके. उसे हर रूप, हर स्थिति में पहचान कर उसमें तथा विचारों में संबंध देख सके.

अभिभावकों को अपनी समझ को व्यापक करना होगा, जहां सफलता का मानक सिर्फ तीन घंटे की परीक्षा मात्र न हो. समय आ गया है कि इस विषय पर गंभीरता से विचार किया जाए और अंकों की गलाकाट प्रतियोगिता से इतर स्कूली शिक्षा का एक नया रूप गढ़ा जाए, जहां परीक्षा में अच्छे अंक पाने की रणनीति पर चर्चा न हो, प्रतिभाओं का वास्तविक आकलन करने की मनोवैज्ञानिक व्यवस्था स्थापित हो, जहां बच्चे अपनी रुचि के मुताबिक विषय में पारंगत हों और अपने सपनों को नित्य नवीन आकार देने में सक्षम हो सकें.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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