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गाजा में शांति की जरूरी पहल, पढ़ें अनिल त्रिगुणायत का आलेख

Gaza : ट्रंप की इस पहल की प्रशंसा हो रही है, तो इसे समझा जा सकता है. दो साल से जारी इस संघर्ष में गाजा में लगभग 70,000 फिलिस्तीनी मारे गये हैं. इस्राइल के कब्जे वाले पश्चिमी तट का शासन संभाल रहे फिलिस्तीनी अधिकारियों ने ट्रंप की इस योजना को गंभीर और दृढ़ निश्चय वाला बताया है.

Gaza : अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गाजा में शांति बहाली के उद्देश्य से हाल ही में जिस 20 सूत्रीय योजना की घोषणा की थी, उस दिशा में प्रगति दिख रही है. ट्रंप की इस योजना में जहां इस्राइल को गाजा में सैन्य कार्रवाई तत्काल रोकने के लिए कहा गया है, वहीं हमास को इस्राइली बंधकों को रिहा करना है, लेकिन इस योजना में गाजा के शासन में हमास की कोई भूमिका भविष्य में नहीं होगी. अच्छी बात यह है कि हमास ने, अनिच्छा और संदेह के बावजूद, इस योजना पर सहमति जतायी है. दरअसल ट्रंप ने धमकी दी थी कि अगर हमास ने बहत्तर घंटे में यानी रविवार शाम छह बजे तक इस योजना पर सहमति नहीं जतायी, तो अमेरिका इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ खड़ा होगा. उनका यह भी कहना था कि हमास को आखिरी मौका दिया जा रहा है.


ट्रंप की इस पहल की प्रशंसा हो रही है, तो इसे समझा जा सकता है. दो साल से जारी इस संघर्ष में गाजा में लगभग 70,000 फिलिस्तीनी मारे गये हैं. इस्राइल के कब्जे वाले पश्चिमी तट का शासन संभाल रहे फिलिस्तीनी अधिकारियों ने ट्रंप की इस योजना को गंभीर और दृढ़ निश्चय वाला बताया है. यूरोपीय देशों के साथ-साथ भारत ने भी इस योजना का स्वागत किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि यह योजना फिलिस्तीनी और इस्राइली लोगों के साथ-साथ पूरे पश्चिम एशियाई क्षेत्र के लिए लंबे समय तक चलने वाली स्थायी शांति, सुरक्षा और विकास का एक कारगर रास्ता प्रदान करती है. बहरहाल, याद रखना चाहिए कि भारत ने पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र महासभा में उस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था, जो फिलिस्तीन मुद्दे के शांतिपूर्ण हल-यानी द्विराष्ट्र समाधान का समर्थन करता है. उससे पहले भारत ने गाजा के हालात पर भी चिंता जतायी थी.


इन सबके बावजूद मौजूदा घटनाक्रम को पश्चिम एशिया में एक छोटी-सी शुरुआत ही मानना चाहिए. एक तो इसलिए कि दोनों प्रमुख खिलाड़ी- इस्राइल और हमास आधे-अधूरे मन से ट्रंप की योजना के साथ हैं. ट्रंप द्वारा इस्राइल को हमला रोक देने के लिए कहने के बावजूद इस्राइली सैनिकों ने हवाई हमला कर जिस तरह 60 से अधिक लोगों को मारा, उसी से लगता है कि इस शांति योजना पर फौरी तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति का दबाव ही काम कर रहा है. फिर अभी मुख्य फोकस गाजा पर है, स्वतंत्र फिलिस्तीन का मुद्दा नेपथ्य में चला गया है.


इस मामले में संदेह का एक दूसरा कारण यह है कि आगे के चरणों में भी फिलिस्तीन को किसी तरह का अधिकार देने की बात दिखाई नहीं देती, जबकि असल मुद्दा तो द्विराष्ट्र समाधान का है, लेकिन ट्रंप की इस बेहद महत्वाकांक्षी योजना में इसका कोई स्पष्ट रोडमैप दिखाई नहीं दिखता. इसके बजाय इस योजना में हमास के निरस्त्रीकरण और गाजा को अमेरिकी राष्ट्रपति की अध्यक्षता वाले बोर्ड ऑफ पीस से चलाने की शर्त शामिल है. योजना के तहत इस्राइल को चरणबद्ध तरीके से गाजा से हटना है, बंधकों की अदला-बदली होनी है और अरब देशों को पुनर्निर्माण का खर्च उठाना है, जबकि बदले में फिलिस्तीन को भविष्य में राज्य का अस्पष्ट वादा किया गया है.

ऐसे में, पाकिस्तान और कई अरब राष्ट्रों पर फिलिस्तीन के मुद्दे से धोखा करने के आरोप लग रहे हैं और इसे ‘टू स्टेट सॉल्यूशन’ की जगह ‘टू स्टेट सरेंडर’ भी बताया जा रहा है. जाहिर है, इसकी वजह इस्राइल की आक्रामकता के साथ-साथ अमेरिका का रवैया भी है. अमेरिका ने जहां फिलिस्तीनी अधिकारियों को संयुक्त राष्ट्र की महासभा में हिस्सेदारी करने से रोक दिया, वहीं नेतन्याहू ने स्वतंत्र फिलिस्तीन की स्थापना की स्थिति में एकतरफा कार्रवाई की धमकी दी है. सीधी-सी बात है, फिलिस्तानियों को विश्वास में लिये बगैर या उन्हें समुचित अधिकार दिये बगैर पश्चिम एशिया में कोई भी पहल अधूरी ही रहेगी. बहुत ज्यादा उम्मीद इसलिए भी नहीं है, क्योंकि इससे पहले भी इस मुद्दे के हल की कोशिश गंभीरता और सर्वसम्मति के अभाव में विफल हो चुकी है.


जो ट्रंप हाल-हाल तक गाजा के मुद्दे पर नेतन्याहू के साथ खड़े थे, उन्हें अचानक यह पहल क्यों करनी पड़ी? दो तात्कालिक कारणों ने पश्चिम एशिया मुद्दे के हल के लिए ट्रंप पर दबाव बनाया होगा. एक तो इस्राइल की आक्रामकता को देखते हुए पश्चिमी देशों ने जिस तरह फिलिस्तीन को मान्यता देनी शुरू की, उससे ट्रंप को लगा होगा कि समाधान की दिशा में सक्रियता दिखानी चाहिए. पिछले महीने ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने औपचारिक रूप से फिलिस्तीन को आजाद देश की मान्यता दी थी. यह एक बड़ा कदम इसलिए था, क्योंकि पहली बार जी-7 की उन्नत अर्थव्यवस्था वाले देशों ने फिलिस्तीन को मान्यता दी. फिर पुर्तगाल ने फिलिस्तीन को मान्यता दी. नेतन्याहू संयुक्त राष्ट्र महासभा में इस मुद्दे पर पश्चिमी देशों पर नाराजगी जता चुके हैं, क्योंकि वह फिलिस्तान को मिलने वाली अंतरराष्ट्रीय मान्यता को इस्राइल पर हमले के रूप में चित्रित करते हैं.


ट्रंप के अचानक सक्रिय होने का दूसरा बड़ा कारण इस्राइल द्वारा हाल में कतर में हमास के सदस्यों पर किया गया हमला था. इससे ट्रंप नाराज हो गये, क्योंकि कतर अमेरिका का सहयोगी है. ऐसे में, ट्रंप को महसूस हुआ कि पश्चिम एशिया के मामले में अमेरिकी उदासीनता गंभीर साबित हो सकती है. सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुआ समझौता भी ट्रंप के लिए चेतावनी की तरह है कि अगर इस्राइल की मनमानी इसी तरह जारी रही, तो मुस्लिम देशों की एकजुटता एक अलग किस्म की चुनौती खड़ी कर सकती है. इसीलिए ट्रंप पश्चिम एशिया की समस्या के हल के लिए आनन-फानन में 20 सूत्रीय योजना लेकर आये, लेकिन ऐसा लगता है कि ट्रंप का पूरा जोर फिलहाल इस्राइली बंधकों की रिहाई पर ही है.


हालांकि ट्रंप को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि उन्होंने फिलिस्तीन-इस्राइल का विवाद सुलझाने की दिशा में कई बार कोशिश की. ट्रंप ने यह भी स्पष्ट किया है कि वह पश्चिमी तट को इस्राइल द्वारा हथियाने नहीं देंगे, जबकि नेतन्याहू और उनके धुर दक्षिणपंथी गठबंधन सहयोगी लंबे समय से पश्चिमी तट के बड़े हिस्से पर कब्जा करना चाहते हैं, जिससे स्वतंत्र फिलिस्तीन की स्थापना करना ही असंभव हो जाये. अभी अगर इस्राइली सैनिक गोलीबारी बंद करने पर सहमत हुए हैं, तो उसके पीछे ट्रंप की सक्रियता ही है, लेकिन उनकी इस बेहद महत्वाकांक्षी योजना के आगे के चरणों के बारे में जब तक स्पष्टता नहीं आयेगी, तब तक पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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