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Friday, March 29, 2024

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वायु प्रदूषण से निपटना जरूरी

लॉकडाउन से उपजी परेशानियों को छोड़ दें, तो इस दौरान हमारी प्राकृतिक संपदा, पर्यावरण, नदियों और वायु की गुणवत्ता को सबसे ज्यादा लाभ पहुंचा है़ वायु प्रदूषण घटा और प्रकृति की हरियाली लौटी.

वायु प्रदूषण के मामले में हमारी स्थिति दुनिया में सबसे ज्यादा खराब है़. एक स्विस ऑर्गनाइजेशन द्वारा तैयार ‘वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपाेर्ट, 2020 ‘ में बताया गया है कि दुनिया के 30 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में हमारे देश के 22 शहर शामिल है़ं हमारे यहां वायु की गुणवत्ता इतनी खराब है कि अस्थमा, हृदय रोग, फेफड़ों के रोग समेत अनेक जानलेवा बीमारियों से जूझते रोगियों की तादाद दिनों-दिन बढ़ रही है़ यह इस बात का संकेत है कि प्रदूषण के मामले में देश की हालत चिंताजनक है़

हमारा देश दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित देशों की सूची में पांचवे स्थान पर है़ इस सूची में पहला स्थान बांग्लादेश, दूसरा पाकिस्तान, तीसरा मंगोलिया और चौथा अफगानिस्तान का है़. हवा के प्रदूषित होने से इनमें घुलनेवाले छोटे-छोटे कण सांस के जरिये हमारे फेफड़ों तक पहुंचते है़ं, फिर हृदय, फेफड़ों, सांस आदि रोगों में वृद्धि करते है़ं दिल्ली स्थित गोविद बल्लभ पंत अस्पताल में प्रतिदिन इन रोगियों की बढ़ती संख्या इस बात का सबूत है कि देश की राजधानी भी प्रदूषण से अछूती नहीं है़.

देश की राजधानी ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र भी प्रदूषण से बहुत ज्यादा त्रस्त है़ दिल्ली विश्व की सबसे ज्यादा प्रदूषित राजधानी है़ गाजियाबाद तो प्रदूषण में शीर्ष स्थान पर है, जो स्वास्थ्य मानकों के लिहाज से बेहद खतरनाक है़ देश के वे 22 शहर, जो विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित 30 शहरों में शामिल हैं, वहां वायु प्रदूषण का स्तर भयावह स्तर तक पहुंच गया है़ दुखद है कि इस भयावह स्थिति काे देखते हुए भी सरकार मौन है़ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और प्रदूषण पर नियंत्रण करनेवाली अन्य संस्थाएं भी इस दिशा में नाकाम साबित हुई है़ं

अगर वायु प्रदूषण फैलाने वाले कारकों पर नियंत्रण लगा होता, तो देश को इतनी भयावह स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता़ प्रदूषण का यह स्तर हमारी असफलता का सबूत है़ वायु प्रदूषण के इतने व्यापक पैमाने पर फैलने का कारण वाहनों की दिनों-दिन बढ़ती संख्या, भवन निर्माण पर प्रतिबंध का नाकाम रहना, भवन निर्माण सामग्री का खुलआम सड़कों पर पड़े रहना और औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाला जहरीला धुआं है़ इसे विडंबना ही कहेंगे कि वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए अक्सर किसानों द्वारा पराली जलाने को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है़

जबकि वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार पर पराली केवल 2.37 प्रतिशत प्रदूषण के लिए ही जिम्मेदार है़ वायु प्रदूषण बढ़ाने में जब पराली का स्तर इतना निम्न है, तो हम कैसे यह कहने के अधिकारी हैं कि प्रदूषण बढ़ाने में पराली का योगदान है़ आज से छह साल पहले सरकार ने घोषणा की थी कि एनटीपीसी पराली को खरीदेगी और उससे गैस बनायेगी, लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई कारगर पहल नहीं हुई है़ कुछ प्रतिशत पराली की खरीद तो हुई है, लेकिन उसका कितना इस्तेमाल हुआ है और उससे कितनी गैस बनी है, सरकार उसका विवरण अभी तक नहीं दे पायी है.

पार्टिकुलेट मैटर भी खतरनाक स्तर को पार कर गया है, लेकिन इसे लेकर सरकार की चिंता नगण्य है़ प्रदूषण चाहे वायु का हो या जल का, बढ़ता ही जा रहा है. प्रदूषण पर जल्द ही लगाम लगनी चाहिए. उत्तराखंड की त्रासदियां पर्यावरण विरोधी नीतियों का ही परिणाम है़ गंगा को लें, तो वह 2014 के बाद से आज 20 गुना ज्यादा मैली है और उस पर बन रहे बांध गंगा जल के विलक्षण गुण को नष्ट करने के प्रमुख कारण है़ं

लॉकडाउन से उपजी परेशानियों को छोड़ दें, तो इस दौरान हमारी प्राकृतिक संपदा, पर्यावरण, नदियों और वायु की गुणवत्ता को सबसे ज्यादा लाभ पहुंचा है़ चूंकि इस दौरान सड़कों पर वाहनों की आवाजाही पर प्रतिबंध थे, जिससे वायु प्रदूषण घटा और प्रकृति की हरियाली लौट आयी़ नदियों का जल साफ हुआ़ लॉकडाउन पर्यावरण सरंक्षण की दिशा में अहम कारक साबित हुआ, लेकिन लॉकडाउन के बाद जैसे ही पाबंदियां हटीं, हर तरह के प्रदूषण के स्तर में वृद्धि हो गयी़ वायु प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार द्वारा बनायी जाने वाली विकास नीति पर्यावरण के हित में होनी चाहिए, उसकी विरोधी नही़ं लेकिन आजादी से लेकर आज तक कभी भी सरकार ने पर्यावरण अनुकूल विकास नीतियां नहीं बनायी है़ं आज से 110 वर्ष पहले महात्मा गांधी ने कहा था कि मानव यंत्र का गुलाम न हो़ यंत्र एक सहायक की भूमिका में हो़ वर्तमान स्थिति उसके एकदम उलट है़

हम भले ही विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में, महाशक्तियों के साथ खड़े होने का दावा करें, हम उससे कोसों दूर है़ं जब विकास जनहितकारी होगा, पर्यावरण हितैषी होगा, तभी देश की प्राकृतिक संपदा सुरक्षित रह पायेगी़ आज हमारे देश की 67. 4 प्रतिशत भूमि बंजर हो चुकी है़ यह सब बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन का दुष्परिणाम है़

यदि हमने अभी इसे नहीं रोका, तो बहुत जल्द हम दाने-दाने को मोहताज हो जायेंगे़ समय आ गया है कि हम भौतिक संसाधनों की अंधी चाहत की ओर न दौड़ें, प्रकृतिप्रदत्त संसाधनों की रक्षा करें क्योंकि ये सीमित है़ं विकास जब-जब मानवीय हितों के विपरित होता है, उसका दुष्परिणाम आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक स्तर के साथ प्राकृतिक संपदा पर भी होता है़ इसलिए हमारा पहला कर्तव्य है कि हम मानवहित और प्रकृतिप्रदत्त संसाधनों की रक्षा की नीतियां बनाएं.

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