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प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा हो बेहतर

बिना किसी देरी के देश को इस साधारण तथ्य का सामना करना होगा कि हमारी स्वास्थ्य सेवा उससे कहीं अधिक संकट में है, जितना हमें दिख रहा है. गरीब परेशान रहते हैं क्योंकि उन्हें यह सेवा नहीं मिलती. धनी इसलिए परेशान होते हैं कि उन्हें उनकी क्षमता से कहीं अधिक मिल सकता है.

जगदीश रत्नानी

फैकल्टी, एसपीजेआइएमआर

सात अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस है और हमें उम्मीद है कि इस अवसर पर चर्चाएं मुख्य रूप से कोरोना महामारी की दूसरी लहर पर केंद्रित होंगी, जिससे देश जूझ रहा है. युद्ध के समय समूची सोच और सारा संसाधन स्वाभाविक रूप से तात्कालिक लक्ष्य पर केंद्रित होते हैं. लेकिन युद्ध के दौरान हम कितना अच्छा करते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम शांति के दिनों में कैसे काम करते हैं और क्या तैयारी करते हैं.

बिना किसी देरी के देश को इस साधारण तथ्य का सामना करना होगा कि हमारी स्वास्थ्य सेवा उससे कहीं अधिक संकट में है, जितना हमें दिख रहा है. गरीब परेशान रहते हैं क्योंकि उन्हें यह सेवा नहीं मिलती. धनी इसलिए परेशान होते हैं कि उन्हें उनकी क्षमता से कहीं अधिक मिल सकता है.

आक्रामक देखभाल और भारी भरकम खर्च का मतलब यह हो कि बीमार का ख्याल रखा जा रहा है, ऐसा जरूरी नहीं. इन दो बिंदुओं के बीच पूरा तंत्र हृदयहीन होता जा रहा है. यह एक ऐसी स्थिति है कि अगर विशेषज्ञता उपलब्ध भी हो, तो असर नहीं करेगी क्योंकि वह मानवीयता से कटी हुई है.

यहां केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम की दो कहानियों का उल्लेख है, जिनसे इस लेख के एक लेखक व्यक्तिगत रूप से परिचित हैं. गहन चिकित्सा कक्ष के अपने बिस्तर से एक 75 साल के बुजुर्ग अस्पताल की व्यवस्था को लेकर अपनी बेटी पर चीख रहे थे. उन्हें नियंत्रित रखने के लिए उनके हाथ-पैर बंधे हुए थे. बेटी ने नर्स पर पिता को चिल्लाते सुना. उसे ऐसे व्यवहार की कतई उम्मीद नहीं थी.

लगभग सौ किलोमीटर दूर एक घरेलू कामगार अपने गांव की झोपड़ी में चटाई पर बीमार पड़ी हुई थी. वह चल नहीं सकती थी, उसे घिसटना पड़ता था. चटाई के दूसरी तरफ एक बर्तन था, जिसमें उसे मल-मूत्र त्याग करना पड़ता था. उसकी पोती स्कूल से लौटकर साफ-सफाई करती थी. उसके बेटे-बेटियां नहीं आते थे. जमीन के छोटे टुकड़े के बंटवारे को लेकर वे उससे झगड़ चुके थे.

दोनों बीमारों को अतीत में स्वास्थ्य सेवा मिली थी. रोग की समुचित पहचान हुई थी और उपचार से उन्हें एक-दो साल आराम रहा था. अब लाइलाज बीमारी की स्थिति में एक व्यक्ति अस्पताल में बदहवास बंधा हुआ है, जबकि दूसरा असहाय अकेला पड़ा हुआ है.

ये दोनों मामले केरल से हैं, जहां, राज्य के वित्त के बारे में रिजर्व बैंक की अक्तूबर, 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक, स्वास्थ्य सेवा पर सभी राज्यों से कहीं अधिक प्रति व्यक्ति खर्च होता है, जो औसत से अधिक सरकारी खर्च और जेब से होनेवाले खर्च की वजह से है तथा जिसके कारण निपाह का मुकाबला किया जा सका था और आबादी के घनत्व के बावजूद कोरोना संक्रमण से होनेवाली मौतें कम हुई हैं.

स्वास्थ्य सेवा में अधिक खर्च, खासकर सार्वजनिक क्षेत्र में, वांछनीय है, लेकिन इसके साथ बीमारों के कल्याण को ध्यान में रखना होगा, न कि उन्हें बाहर कर दिया जाए या उन्हें बेबस और पीड़ितों की लंबी कतार में धकेल दिया जाए.

उदाहरण के लिए, भारत में केवल दो फीसदी जरूरतमंदों की दर्द की दवा तक पहुंच है. साल 1985 में पारित एक कानून ने तीन पीढ़ी के डॉक्टरों को मुंह से दिये जानेवाले मॉर्फिन से अपरिचित कर दिया और 2019 तक चिकित्सा पाठ्यक्रम में दर्द का प्रबंधन नहीं था. अधिकतर अस्पतालों में जरूरी दवाइयां सस्ती होने के बावजूद रोगियों को नहीं मिलती. भारत में अफीम की खेती होती है और दुनियाभर में इसका निर्यात होता है. मॉर्फिन इसी से बनाया जाता है.

बड़े ऑपरेशन में, हड्डी टूटने या कैंसर से असह्य दर्द होता है, तब मॉर्फिन या उसका अन्य रूप आराम के लिए जरूरी होता है. ऐसी दवाइयों का कोई और विकल्प विश्व में नहीं है. आज वैज्ञानिक दुनिया संतुलन के सिद्धांत को समझती है, जिससे ऐसी दवाओं के गैर-चिकित्सकीय या गलत इस्तेमाल पर समुचित प्रतिबंध है तथा इसके साथ दर्द निवारण के लिए मॉर्फिन मुहैया कराना भी सुनिश्चित किया जाता है. साल 2014 में संसद द्वारा आवश्यक कानूनी संशोधन किये गये, लेकिन 2015 में जब नियम प्रकाशित हुए, तो उनमें ऐसी गलतियां थीं, जिन्हें सुधारा जाना चाहिए.

संतोषजनक है कि धीरे-धीरे ही सही, कई सकारात्मक चीजें हो रही हैं. साल 2019 के बाद मेडिकल कॉलेजों में आनेवाले छात्र दर्द प्रबंधन तथा संबंधित देखभाल का अध्ययन कर रहे हैं. अनेक राज्य संशोधित कानून को लागू कर रहे हैं. साल 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी इसे रेखांकित किया गया है. वर्तमान में देशभर की स्वास्थ्य सेवा में कर्मियों को गंभीर बीमारियों में राहत देने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है.

राष्ट्रीय स्तर के प्रशिक्षकों को पहले ही प्रशिक्षित किया जा चुका है और जैसे-जैसे वे शिक्षा का प्रसार कर रहे हैं, ऐसी देखभाल प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा तक एक हद तक मुहैया हो जायेगी. भविष्य में शायद रोगियों को अपने घर में ही अधिक करुणामय और जरूरी चिकित्सकीय देखभाल मिलने लगेगी. इसके लिए स्वास्थ्य सेवा में सेवा के विचार को सम्मिलित करना होगा, क्योंकि केवल इसी से गुणवत्तापूर्ण और करुणामय देखभाल मिल सकेगी.

हमें प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करना होगा और गंभीर रोगियों की देखभाल को उसके साथ संबद्ध करना होगा. लेकिन यह तभी कारगर होगा, जब हर स्तर पर और मेडिकल कॉलेजों में इस पर समुचित ध्यान दिया जाए. दूसरी बात यह है कि हम सभी को इसमें कुछ करना होगा. स्वास्थ्य सेवा तब तक पूरी नहीं हो सकती है, जब तक रोगी के समुदाय और परिवार की भागीदारी न हो.

विस्तृत परिवार के बिखरने, युवाओं के प्रवासन और शहरीकरण ने एक ऐसा सामाजिक बदलाव किया है, जिसमें एकल परिवार बीमारी के दौरान सबसे कट जाते हैं. इसे सामुदायिक भागीदारी से दूर करने की जरूरत है. डॉ विक्रम पटेल की उक्ति उल्लेखनीय है कि ‘स्वास्थ्य सेवा इतनी महत्वपूर्ण है कि इसे केवल पेशेवर लोगों के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता है.

इस वर्ष के विश्व स्वास्थ्य दिवस का उद्देश्य है- ‘एक अधिक न्यायपूर्ण स्वस्थ विश्व का निर्माण.’ यदि हमारे लिए इसका कोई अर्थ है, तो लोगों को उचित प्रकार की स्वास्थ्य सेवा मिलनी चाहिए. और, इसका अर्थ यह है कि स्वास्थ्य सेवा का लक्ष्य केवल रोग का उपचार न होकर, दर्द से राहत देने की प्राथमिकता भी हो.

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