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जयंती विशेष : हिंदी गद्य के निर्माता और उन्नायक थे बालकृष्ण भट्ट

पं बालकृष्ण भट्ट हिंदी के लाभ-लोभ से मुक्त ऐसे स्वाभिमानी साहित्यकार व संपादक थे, जो समय के साथ स्वदेश व स्व-संस्कृति के प्रेम में पूरी तरह पग गये थे.

उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के लोकनाथ मोहल्ले (पहले सराय मीर खां) को उसकी इस उपलब्धि का सहज श्रेय प्राप्त है कि उसने देश को राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन व महामना मदनमोहन मालवीय जैसे दो-दो अप्रतिम हिंदीसेवी दिये. इन दोनों विभूतियों को न केवल हिंदी जगत में व्यापक मान्यता प्राप्त हुई, बल्कि समय के साथ देश ने उनको अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी विभूषित किया. पर जाने क्यों, 1844 में तीन जून को इसी मोहल्ले में जन्मे ऐतिहासिक भारतेंदु मंडल के प्रमुख सदस्य और उद्भट हिंदीसेवी बालकृष्ण भट्ट इतने सौभाग्यशाली नहीं सिद्ध हुए. अपना सारा जीवन हिंदी और हिंदी समाज के लिए होम करने के बाद भी 1914 में 20 जुलाई को उनके इस संसार से जाने के कुछ ही दशकों बाद उन्हें बरबस विस्मृति के गर्त में धकेल दिया गया. इस सीमा तक कि उनकी जन्मस्थली में भी उनकी स्मृतियों के संरक्षण के लिए उठने वाली आवाजें अनसुनी रह जाती हैं.

हालांकि, न उनकी सेवाएं इतनी कमतर थीं, न सृजन. उनके समय में दूरगामी सोच वाले उनके निबंधों की तूती तो बोलती ही थी, ‘नूतन ब्रह्मचारी’, ‘सौ अजान और एक सुजान’ तथा ‘रहस्यकथा’ जैसे उपन्यास भी खूब लोकप्रिय हुए थे. उन्होंने ‘दमयंती स्वयंवर’, ‘बाल विवाह’, ‘चंद्रसेन’ और ‘रेल का विकट खेल’ जैसे नाटकों की रचना की थी, तो ‘वेणीसंहार’, ‘मृच्छकटिक’ और ‘पद्मावती’ का हिंदी में अनुवाद भी किया था. इतना ही नहीं, उन्होंने हिंदी की तत्कालीन पत्रकारिता को भी कुछ कम समृद्ध नहीं किया. सच पूछिए, तो वे पत्रकारिता सहित हिंदी के समूचे गद्य साहित्य के निर्माता व उन्नायक थे. उनका सर्वस्व स्वतंत्रता संघर्ष के लिए न्योछावर था और उनके द्वारा संपादित मासिक ‘हिंदी प्रदीप’ अपने पाठकों में राष्ट्रीयता का जो भाव भरता था, उससे उसके समकालीन दूसरे राष्ट्रवादी पत्र ईर्ष्या किया करते थे. सितंबर, 1877 में ‘हिंदी प्रदीप’ का प्रवेशांक प्रकाशित हुआ और जल्द ही वह लोकप्रिय हो गया. ‘सरस्वती’ के दो-दो संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी व पं देवीदत्त शुक्ल इस पत्र के मुखर प्रशंसक थे. पं देवीदत्त शुक्ल की निगाह में पं बालकृष्ण भट्ट हिंदी के लाभ-लोभ से मुक्त ऐसे स्वाभिमानी साहित्यकार व संपादक थे, जो समय के साथ स्वदेश व स्व-संस्कृति के प्रेम में पूरी तरह पग गये थे. भारतेंदु हरिश्चंद्र की एक पद्य रचना इस पत्र के मुखपृष्ठ पर निरंतर प्रकाशित हुआ करती थी, जबकि खुद भट्ट के कोई 300 निबंध प्रकाशित हुए थे. इन निबंधों की विषयवस्तु और शैली दोनों में ही भरपूर वैविध्य था. अपने निबंधों में उनका चरित्र निर्माण, आत्मशुद्धि, स्त्री शिक्षा, देशोद्धार और कर्तव्य परायणता आदि पर विशेष जोर होता था, जबकि पुरुष वर्चस्ववादी व स्त्री विरोधी समाज व्यवस्था उनके निशाने पर होती थी.

‘हिंदी प्रदीप’ के अप्रैल, 1909 के अंक में माधव शुक्ल की ‘बम क्या है’ शीर्षक कविता प्रकाशित हुई, तो नाराज गोरी सत्ता ने झुंझलाकर उस पर तीन हजार रुपये का जुर्माना लगा दिया. भट्ट जी यह जुर्माना नहीं भर पाये और ‘हिंदी प्रदीप’ की सांसें घुट गयीं. फिर किसी भी तरह उसका पुनर्जीवन संभव नहीं हुआ. पर जब तक वह जिंदा रहा, उसके संपादन में उन्हें सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक व नैतिक किसी भी विषय या नाटक, निबंध, उपन्यास, कहानी व कविता आदि किसी भी विधा की रचना से परहेज नहीं रहा. कोई सर्जक उनको किसी भी विधा में ‘घोर अंधकार में डूबे भारतवर्ष’ के त्राण के प्रयत्नों को बल देता दिखाई देता, तो वे उसके पुरस्कर्ता बनने में कतई देर नहीं करते. वे खुद राजनीतिक व सामाजिक परिवर्तन से जुड़े विषयों पर लिखते तो उनकी शैली कबीराना हो जाती और प्राय: तिलमिलाकर रख देती. इस सिलसिले में सबसे अच्छी बात यह कि वे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के अंधनिंदक नहीं थे और इनके औदात्य का उद्घाटन करने वाले पहलुओं को भी उजागर किया करते थे.

सांप्रदायिक व धार्मिक एकता के वे इस सीमा तक समर्थक थे कि किसी भी धर्म में कोई अच्छी बात दिखती तो मुक्तकंठ से उसकी प्रशंसा करते थे. इसके विपरीत, जो भी धर्म, संप्रदाय, जाति, समूह या जमावड़ा देश और मनुष्य की एकजुटता के उद्घोष में बाधा डालता, वह उन्हें ग्राह्य नहीं था. दूसरे पहलू पर जाएं, तो उनका त्याग इस सीमा तक असीम था कि वे पितरों का ‘श्राद्ध’ करने जब गया गये, तो अपने कुल के विधान के अनुसार उनसे तीन वर मांगे- पहला, पैतृक संपत्ति से हमें एक भी पैसा न मिले, दूसरा, हमारी संतानों का चरित्र निर्मल रहे और तीसरा, एक पुत्र संस्कृत का विद्वान हो.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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