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पूरा नहीं हो सकेगा चीन का मंसूबा

चीन का भारत के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार उसके लिए आत्महत्या से कम नहीं होगा. दक्षिण एशिया को समेटने में कहीं वह खुद ही न दरकने लगे.

पिछले दिनों ग्लोबल टाइम्स ने एक कार्टून में भारत की तुलना थके, कमजोर, बेहाल हाथी से की, जो महामारी में औंधे मुंह गिरा हुआ है. दूसरी तरफ, चीन ने बांग्लादेश को चेतावनी दी है कि वह अगर क्वाड से जुड़ता है, तो इसके परिणाम घातक होंगे. मध्य-पूर्व एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया में असफल होने के बाद चीन दक्षिण एशिया को अपने तरीके से बांधने की कोशिश कर रहा है. उसकी गतिविधियां भारतीय उपमहाद्वीप के इर्द-गिर्द हो रही हैं.

चीन संदेश देना चाहता है कि 21वीं सदी की नयी विश्व-व्यवस्था में भारत चीन के सामने बौना है. पिछले वर्ष गलवान वैली की भिड़ंत युद्ध के ट्रेलर के रूप में थी. शी जिनपिंग बेचैनी में कभी लिपुलेख को लेकर नेपाल, तो कभी श्रीलंका पर दबाव बनाते गये. पिछले दिनों चीनी राजदूत ने बंग्लादेश को सीधी चेतावनी दे डाली. अमेरिका ने भी इस चेतावनी को संजीदगी से लिया है.

चीन की दादागिरी दक्षिण एशिया में क्यों नहीं बन सकती, इस बात की विवेचना जरूरी है. महत्वपूर्ण आर्थिक और सैनिक ताकत बनने के बावजूद चीन की तुलना अमेरिका से नहीं की जा सकती. आण्विक हथियार और प्रक्षेपास्त्र भी अमेरिका की तुलना में कमजोर हैं. दक्षिण एशिया की बात होने पर अमेरिका की चर्चा क्यों? यह प्रश्न पूछा जा सकता है. दरअसल, मध्य-पूर्व और अफगानिस्तान से सैन्य व्यवस्था को संकुचित करने के बाद अमेरिका पर भी सवालिया निशान लगाया जा रहा है. विश्व व्यवस्था में खुद को केंद्र में रखने के लिए अमेरिका के पास कोई तो कारण होना चाहिए. वह रास्ता लोकतंत्र से होकर गुजरता है. इसकी सबसे महत्वपूर्ण धुरी दक्षिण एशिया में भारत है.

बांग्लादेश और श्रीलंका में लोकतांत्रिक ढांचा निरंतर मजबूत हो रहा है. इसमें सबसे अहम पहलू भारत का ही है. बांग्लादेश की आर्थिक व्यवस्था पाकिस्तान से डेढ़ गुनी बड़ी बन चुकी है. चीन 1990 से ही ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ नीति के जरिये भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करने की कोशिश कर रहा है. इसमें बहुत हद तक वह सफल भी रहा, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से चीन की चाल कमजोर हो चुकी है. यह श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश में देखा जा सकता है. दूसरा, संघर्ष का अहम केंद्र हिंद-प्रशांत क्षेत्र बन चुका है.

चीन अपने समुद्री मार्ग को व्यापक बनाने की हर कोशिश में जुटा हुआ है. दक्षिण चीन सागर में मलक्का दुविधा चीन के लिए एक चुनौती है. दक्षिण-पूर्व एशिया सहित पूर्व एशिया के सभी देश चीन के व्यवहार से दुखी हैं. जापान, फिलीपींस, मलेशिया, इंडोनेशिया और अन्य देश भी चीन के विरोध में खड़े हैं. क्वाड की शुरुआत भी हिंद-प्रशांत के मद्देनजर हुई है. इस मुहिम में अमेरिका के साथ यूरोप और एशिया के मिडिल पावर भी शामिल हैं.

मसलन, जापान, दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी. दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को छोड़कर सभी देश इस कतार में खड़े हैं. अमेरिका दक्षिण एशिया के लोकतांत्रिक ढांचे को एक नया स्वरूप भी देना चाहता है. यही कारण है कि अमेरिका ने जी-20 की जगह जी-7 संगठन को अहमियत दी है, क्योंकि जी-7 में चीन शामिल नहीं है.

तीसरा, अंतररष्ट्रीय राजनीति के पंडितों को ऐसा महसूस होता है कि समय से पहले चीन ने अपनी शक्ति का परचम लहराना शुरू कर दिया. चीन के आर्थिक व्यवस्था को नया आयाम देनेवाले डेंग जियाओपेंग ने चीन की धार को दुनिया की नजरों से छिपाकर रखा था. उनकी सोच थी कि जब तक चीन उस मुकाम तक पहुंच नहीं जाता, संघर्ष के हालात पैदा करना यथोचित नहीं होगा. लेकिन शी जिनपिंग को लगा कि चीन जंगल का राजा बन चुका है. इसी उन्माद में चीन ने ताइवान से लेकर गलवान तक अपने फ्रंट खोल दिये. दुनिया के हित एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. चीन का व्यापारिक स्वरूप सैनिक तंत्र में बदलने लगा. हर देश उससे नाराज होने लगे.

चीन की स्थिति न ही अमेरिका की तरह थी और न ही ब्रिटेन की तरह. अगर दो महत्वपूर्ण भौगोलिक सिद्धांत के ढांचे में भी चीन को डालकर देखा जाये, तब भी चीन की स्थिति एक निष्कंटक महाशक्ति के रूप में नहीं बनती. महाशक्ति की पहचान भी इस रूप में की जाती है कि उनके विरुद्ध समुद्रों में कतार लंबी नहीं हो. अगर हो भी, तो उसे भेदने की क्षमता उसके पास उपलब्ध हो. क्या चीन अमेरिका की तरह किसी भी देश में बलपूर्वक प्रवेश कर तहस-नहस कर सकता है. संभवतः नहीं. चीन की आर्थिक शक्ति भी निर्यात तंत्र पर आश्रित है. जब व्यापार का नेटवर्क कमजोर पड़ेगा, तो चीन की गति भी थम जायेगी.

चौथा, चीन के भीतर कई दरार हैं. समय-समय पर दरार से असंतोष के बुलबुले फूटते दिखायी देते है. गलवान घाटी संघर्ष के दौरान भी तिब्बत का मसला उभर कर सामने आया. शिनजियांग की समस्या अभी भी बनी हुई है. वृहतर तिब्बत पूरे चीन का 40 प्रतिशत हिस्सा है. अगर विरोध की लहर को भारत और अमेरिका का साथ मिल जाता है, तो चीन का तिब्बत एक अलग अस्तित्व में दिखायी देगा. चीन का सर्वशक्तिशाली बनने का मंसूबा रेत की तरह बिखर जायेगा.

चीन के समाज में कई सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियां भी हैं, जो मुखर दिखायी दे रही हैं. ऐसे हालात में चीन का भारत के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार उसके लिए आत्महत्या से कम नहीं होगा. दक्षिण एशिया को समेटने में कहीं वह खुद ही न दरकने लगे.

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