समाज चाहे कितना भी आधुनिक होने का दावा करे, बहू और बेटियों को समानता का दर्जा देने में विफल रहा है. समय बदला है, सोच बदली है, लड़कियां पढ़ रहीं हैं, आगे बढ़ रहीं हैं, पर हजारों ऐसी भी हैं, जिनके सपनों का काफिला शादी होने के बाद थम जाता है. उन्हें यह एहसास करवाया जाता है कि एक सुघड़ गृहणी होना ही सबसे बड़ी योग्यता है. उनकी योग्यता को कोई तरजीह नहीं दी जाती है.
भारतीय समाज की दोहरी मानसिकता का यह एक कड़वा सच है. जिंदगी भर वह एक आउटसाइडर का तमगा लेकर रहती हैं. समाज में यह सोच क्यों नहीं बदल रही है? जब परिवार में नयी बहू आये, तो उसे बेटी की तरह प्यार दें, उसके पंखों को उड़ान दें. उसे भी खुला आसमान दें.
डॉ शिल्पा जैन सुराणा, वारंगल