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डोनाल्ड ट्रंप की अतिवादी नीतियां

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद खास तौर पर शीत युद्ध के दौर में अमेरिका और रूस (पूर्व सोवियत संघ) अंतरराष्ट्रीय संबंधों को ध्यान में रख कर ही अपनी नीतियों को तय करते रहे हैं. उनकी नीतियों का जितना अधिक संबंध अपने देश के आंतरिक मसलों से […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद खास तौर पर शीत युद्ध के दौर में अमेरिका और रूस (पूर्व सोवियत संघ) अंतरराष्ट्रीय संबंधों को ध्यान में रख कर ही अपनी नीतियों को तय करते रहे हैं. उनकी नीतियों का जितना अधिक संबंध अपने देश के आंतरिक मसलों से रहा है, उतना ही बाह्य मसलों से भी रहा है. सोवियत संघ के विघटन के बाद लगातार दुनिया अपने संबंधों के लिए अमेरिकी नीतियों में हो रहे बदलावों का गंभीरता से अन्वेषण करती रही है. हाल में जब से डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के नये राष्ट्रपति बने हैं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बार फिर से उथल-पुथल शुरू हो गया है.
ट्रंप ने राष्ट्रपति पद संभालते ही सबसे विवादित आदेश देते हुए सात मुसलिम बहुल देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश करने पर अस्थायी रूप से प्रतिबंध लगा दिया. इस आदेश पर न केवल अमेरिका में, बल्कि दुनियाभर में कड़ी प्रतिक्रिया हो रही है. यह मुद्दा अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नये गोलबंदी का संकेत दे रहा है.
सत्ता संभालते ही ट्रंप ने ‘अमेरिकी फर्स्ट’ की उद्घोषणा की और वैसी अमेरिकी कंपनियों को फटकार लगायी, जो देश के बाहर अपना सेटअप बनाये हुए हैं. उन्होंने मैक्सिको की सीमा पर दीवार खड़ी करने के आदेश दे दिये. फिर अमेरिकी सुरक्षा की बात कहते हुए उन्होंने सीरिया, लीबिया, ईरान, इराक, सोमालिया, सूडान, यमन जैसे मुसलिम बहुल देशों के नागरिकों के अमेरिका प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया. कुछ लोग ट्रंप के इस कदम को ‘अमेरिकी राष्ट्रवाद’ के रूप में देख रहे हैं.
खास कर दक्षिणपंथी धड़े में इसको लेकर उत्साह भी है. लेकिन, यह समझने की जरूरत है कि अमेरिका का ‘राष्ट्रवाद’ कभी भी उस तरह का नहीं रहा है, जिस दिशा में ट्रंप उसे ले जाना चाह रहे हैं. 1960 के दशक में ही अमेरिकी संसद ने कानून बना कर प्रवासियों को अपने नागरिक की तरह स्वीकार किया था. तब से लेकर अब तक अमेरिकी समाज बहुलतावादी राष्ट्र के रूप में स्थापित हो चुका है. इस बात से इनकार नहीं कि आज अमेरिका के हर सेक्टर में प्रवासियों का अभूतपूर्व योगदान है.
ट्रंप की नीतियों को अमेरिकी राष्ट्रवाद के रूप में नहीं देखा जा सकता है. ट्रंप के विचारों में ईसाई मत का शुद्धतावादी नजरिया है. इसमें एक ओर अश्वेतों, स्त्रियों के प्रति सम्मान का भाव नहीं है, तो वहीं दूसरी ओर मुसलमानों के प्रति घृणा का भाव है. यहां एक सवाल खड़ा होता है कि क्या मुसलमानों के प्रति घृणा का भाव ट्रंप के निजी विचारों का प्रतिफलन है या अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों का प्रतिफलन, जिसे अब एक शीर्ष नेता घोषित तौर पर वैचारिक रंग देने की कोशिश कर रहा है ?
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मुसलमानों के प्रति अंतरराष्ट्रीय समुदाय की अवधारणा में खाड़ी युद्ध के बाद तेजी से बदलाव आया है. शीत युद्ध के दौरान ही अमेरिका ने उन क्षेत्रों में सैन्य हस्तक्षेप शुरू कर दिया था, जो सोवियत रूस के प्रभाव में या समर्थन में थे. अफगानिस्तान इसका सबसे बड़ा उदहारण है. इराक में सद्दाम हुसैन अमेरिका का प्रबल विरोधी था, तो अफ्रीका में लीबिया का कर्नल गद्दाफी. सद्दाम हुसैन और कर्नल गद्दाफी कभी भी कट्टर और प्रतिक्रियावादी इसलामिक धारा के समर्थक नहीं रहे हैं.
लेकिन, पश्चिम विरोधी नीतियों के कारण अमेरिका इनके खिलाफ कूटनीतिक चाल चलने में सफल रहा और इनके विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया. दूसरी ओर ओसामा बिन लादेन और तालिबान, जिन्हें अमेरिका ने अपने हित में खड़ा किया था, वे इसलाम के कट्टरपंथी धारा का नेतृत्व रहे हैं. जब इसलाम के अंदर के प्रगतिशील धड़े को अमेरिका ने ध्वस्त कर दिया, तब उस समाज के ‘गैप’ को इसलामिक स्टेट जैसे कट्टर इसलामिक संगठनों ने भर लिया. यह भी ध्यातव्य होना चाहिए कि इसलामिक स्टेट का जन्म सीरिया और इराक में अमेरिकी सहयोग से ही हुआ है.
अमेरिकीपरस्त मीडिया ने दुनिया के सामने इसलाम के इसी कट्टरपंथी स्वरूप को सामने रखा और बड़े पैमाने पर अफवाह और गलतफहमी पैदा की. जैसे, कर्नल गद्दाफी को तानाशाह घोषित किया गया और इसके साथ ही उसके मुसलमान होने की पहचान भी दुनिया के सामने रख दी गयी.
जबकि गद्दाफी रेडिकल तरीके से लीबिया की सत्ता में आया था. सत्ता में आते ही उसने साम्राज्यवादी शक्तियों का खुल कर प्रतिरोध करना शुरू कर दिया था. उसने पश्चिम की कई कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. उसने लीबिया में स्थापित सबसे बड़े अमेरिकी सैनिक अड्डे ‘व्हीलस एयरबेस’ को बंद करा दिया. इस दौर में कर्नल गद्दाफी को पश्चिम के विरुद्ध अपनी नीतियों में सफलता मिली. लेकिन, सोवियत रूस के विघटन के बाद से लीबिया के अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बड़े पैमाने पर बदलाव आया. इसी के बाद से गद्दाफी को अमेरिकी मीडिया ने ‘तानाशाह’ के रूप में प्रचारित करना शुरू किया, और इसके साथ ही उसके अंदर विद्रोहियों का गुट भी तैयार कर दिया.
ट्रंप के इस निर्णय से सबसे बड़ी चिंता यह हो रही है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय संप्रदायों में विभाजित न हो जाये. ट्रंप ने यह भी कहा है कि दुनिया में जहां भी ईसाई अल्पसंख्यक हैं, वह उनके समर्थन में हैं. ट्रंप की जीत की घोषणा होते ही इजराइल ने पूर्वी यरूशलेम में शहर बसाने का आदेश जारी कर दिया. अब तक इस इलाके में संयुक्त राष्ट्र ने ऐसे किसी भी कार्रवाई को अवैध घोषित किया था. पिछले दिनों ओबामा शासन में जब संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन के मुद्दे पर इजराइल के विरुद्ध प्रस्ताव पारित किया, तो ट्रंप ने इसका विरोध किया. ट्रंप ने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र खुद अमेरिका में होते हुए भी अमेरिका का दोस्त नहीं है. निस्संदेह इसलामिक देश ऐसी नीतियों के विरुद्ध गोलबंद होंगे.
इन सबके बीच उम्मीद की बात यह है कि दुनियाभर के बड़े नेताओं, उद्यमियों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार संगठनों ने ट्रंप के आदेश का विरोध किया है. इस नीति के विरोध में जिस तरह अमेरिका में मुसलमानों को गले लगा कर उनके प्रति भरोसा जताया है, वह सुखद है. भारत जैसे देश को- जहां की आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मुसलमानों का है- बहुत सतर्कता से इस कूटनीति में शामिल होना चाहिए. हमें यह जताने की कोशिश करनी चाहिए कि हम किसी भी तरह के अतिवाद के विरुद्ध हैं.

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