।। राहुल सिंह ।।
पंचायतनामा, रांची
हिंदी पट्टी में एक आम धारणा है कि पंचायतीराज में जो महिलाएं चुन कर आती हैं, उनके नाम पर ‘सत्ता’ उनके पति संभालते हैं. कई जगह तो ‘मुखिया-पति’ जैसे नाम भी चल पड़े हैं. लेकिन झारखंड में एक अलग तसवीर देखने को मिलती है.
झारखंड के अस्तित्व में आने के बाद 2010 में हुए पंचायत चुनाव ने राज्य की महिलाओं को पहली बार बड़ी संख्या में सार्वजनिक जीवन में प्रवेश का अवसर दिया. यहां पंचायतीराज संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी पड़ोसी राज्यों से कहीं बेहतर है. इसका एक बड़ा कारण हैं, यहां की आदिवासी संस्कृति जिसमें महिलाओं का अपना अलग वजूद होता है. इस आदिवासी संस्कृति का प्रभाव झारखंड के अन्य समुदायों पर भी गहरा है.
यानी पंचायतों में चुन कर आयीं गैर आदिवासी महिलाएं भी उन्हीं की तरह स्वतंत्र व मजबूत ढंग से काम करती दिखती हैं. वे चौपाल और ग्रामसभा में भी बैठती हैं और पंचायत, प्रखंड या जिला में बने पंचायतीराज संस्थाओं के कार्यालयों में भी. अगर आपको वहां उनके पति नजर भी आ जायें, तो उनकी भूमिकामहज एक सहायक की होती है.कभी गोद में बच्च लिये कार्यालय के बाहर चक्कर लगाते, तो कभी मैडम जी का बैग, फाइल या अन्य जरूरी कागज थामे नजर आते हैं.
झारखंड में हिंदीभाषी राज्यों की तरह घूंघट, पति का वर्चस्व या गांव की दबंग जातियों का परोक्ष नियंत्रण इनके कामकाज में आड़े नहीं आता. आप किसी महिला मुखिया, प्रमुख, जिला परिषद अध्यक्ष या इनके सदस्यों को फोन करें, तो वे खुद फोन उठायेंगी और पूरी गरिमा व दृढ़ता से आपके सवालों का जवाब देंगी.
चाहे वह दफ्तर का समय हो, या फिर सुबह या देर शाम घर-बार संभालने का. अंगरेजी और हिंदी में भी इनका हाथ खुल गया है. फोन पर वे कुछ इस अंदाज में पेश आती हैं : या; यस; जी मैं फलाना बोल रही हूं, आप कौन; कहिए, क्या बात है. वे दफ्तर के कामकाज, सरकारी मशीनरी की सुस्त चाल, लालफीताशाही, विकास के मुद्दों पर बहुत सहजता से बात करती हैं.
वे राजधानी व जिलों में होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों में हिस्सा लेती हैं. राज्य से बाहर भी दौरे पर जाती हैं. कुछ को तो हवाई जहाज से यात्र करने का भी अवसर मिला है. राज्य और केंद्र के वरीय अधिकारियों व विशेषज्ञों से आमने-सामने विचार-विनिमय का मौका भी इन्हें मिलता है. इससे इनके व्यक्तित्व में निखार आ रहा है. बड़ी संख्या में उच्च शिक्षित महिलाएं भी पंचायत प्रतिनिधि हैं. कई ने तकनीकी शिक्षा भी पायी है. ऐसी प्रतिनिधियों के लिए काम-काज आसानी हो जाता है.
जो कम पढ़ी-लिखी हैं, वे अनुभवों से सीख-जान रही हैं. अधिकार व फंड की मांग का खटराग अपनी जगह है, लेकिन यह मानना पड़ेगा कि इनकी आंखों में अपनी पंचायत को बनाने-सहेजने का सपना झारखंड के नेताओं से कहीं बेहतर, स्पष्ट व ठोस है.