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दाल की खुशबू

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार गांव का बड़े आंगन वाला कच्चा घर. पीछे फूस का लंबा-चौड़ा छप्पर. उसके बाजू में रसोई. वहां चूल्हे पर जब दाल पकती, तो घर में घुसने से पहले ही बाहर के दरवाजे तक आती खुशबू स्वागत करती. जिस बच्चे की पसंद की दाल बनती, उसकी आंखें चमक उठतीं और जिसकी नापसंद […]

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

गांव का बड़े आंगन वाला कच्चा घर. पीछे फूस का लंबा-चौड़ा छप्पर. उसके बाजू में रसोई. वहां चूल्हे पर जब दाल पकती, तो घर में घुसने से पहले ही बाहर के दरवाजे तक आती खुशबू स्वागत करती. जिस बच्चे की पसंद की दाल बनती, उसकी आंखें चमक उठतीं और जिसकी नापसंद की होती, उसका मुंह लटक जाता.

दाल हमारे समाज में इतनी समाई हुई है कि अधिकतर हिंदी भाषी प्रदेशों में इसके बिना सुस्वाद और पौष्टिक भोजन की कल्पना तक नहीं की जा सकती. थाली का अनिवार्य हिस्सा रही है दाल.

आदमी अपनी जरूरतों को कुछ इस तरह से भी कहता रहा है कि बस दो वक्त की दाल-रोटी मिल जाये, तो जीवन चल जाये. कई दालें तो बीमार को स्वस्थ करने के नाम पर भी जानी जाती हैं, जैसे कि मूंग या मसूर की दाल. इससे यह भी पता चलता है कि ये दोनों दालें बीमार शरीर के लिए अतिरिक्त शक्ति और ताकत देने के लिए जरूरी हैं. मसूर की दाल के बारे में कहावत भी प्रचिलित है कि ‘ये मुंह और मसूर की दाल’.

फिर दालों के कितने प्रकार के नमकीन, मंगोड़िया, बड़ियां, पापड़, परांठे, पकौड़े, कढ़ी, चीले, सांभर. उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक दाल की महिमा इतनी है कि लिखने के लिए शब्द कम पड़ जायें. दाल को पकाने की अनेकानेक प्रविधियां हैं, बल्कि कहा तो यह भी जाता है कि भारत के हर घर की रसोई से पकनेवाली दाल का स्वाद अलग होता है.

फिर दाल पकाने का ढंग कि किसे रात भर भिगो कर बनाना है. कौन सी टूटी दाल अच्छी बनती है, कौन सी साबुत. किस दाल के अंकुर नाश्ते के रूप में बेहतरीन होते हैं, जैसे कि काला चना, रमास, मूंग, मोठ आदि. दालों को भून कर खाने का भी रिवाज रहा है. और तो और शादी के वक्त घोड़ी को भीगी हुई चने की दाल भी खुश करने के लिए शायद इसीलिए खिलाई जाती है कि कहीं बारात ले जाते वक्त घोड़ी बिदक न जाये और दूल्हे को कहीं और न ले भागे.

दाल की हमारे जीवन में कितनी जरूरत है, यह तब पता चलता है, जब आप कहीं विदेश जाते हैं. दाल ढूंढ़े नहीं मिलती. अपने घर जैसी दाल के लिए न जाने किस-किस होटल के भीतर झांकते हैं, उस स्वाद के लिए तरसते हैं.

लेकिन, आजकल अकसर इस बात पर हैरानी होती है कि आप घर की रसोई में दाल पका रहे हों, कुकर की सीटी पर सीटी बज रही हो, फिर भी दाल की वह खुशबू नहीं आती, जो पहले महसूस होती थी. आखिर ऐसा क्यों हुआ होगा? एक तो दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए बीजों में परिवर्तन किये गये हैं.

इसके अलावा दालों को चमकीला और आकर्षक बनाने के लिए उन पर पाॅलिश की जाती है. इसके लिए कारखानों में उन्हें जिस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, उसके कारण भी शायद खुशबू खत्म हो जाती है. भारी मात्रा में दालें विदेशों से आयात भी की जाती हैं, इससे भी उनके स्वाद और रंग-रूप में फर्क दिखता है.

महंगाई ने भी उन्हें हमारे जीवन से दूर कर दिया है. कल तक जो दाल गरीब के भोजन का जरूरी हिस्सा मानी जाती थी, आज बढ़ती कीमतों के कारण, वह गरीबों का साथ छोड़ कर, अमीरों की तरफ चली गयी है. यह अफसोसनाक है.

कम-से-कम दाल, दूध, दही, हरी सब्जियां गरीबों के पास रहें, जिससे कि उन्हें भी प्रोटीन तथा अन्य जरूरी चीजों का पोषण मिलता रहे, इस बारे में जरूर सोचा जाना चाहिए. बीज भी अगर ऐसे ही बनाये जायें, जिनकी खुशबू से फिर से दिग-दिगंत महक उठें, तो क्या कहने.

Prabhat Khabar Digital Desk
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