गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
किसानी करते हुए चार साल हो गये. जब नौकरी करता था, तो सितंबर से लगाव था, क्योंकि सितंबर में 15 दिनों की छुट्टी आसानी से मिल जाती थी. अब मुझे दिसंबर से लगाव बढ़ गया है. इस महीने की कोमल धूप मोह लेती है, लेकिन तभी एहसास होता है कि यह साल भी बीत कर विगत हो जायेगा.
सोचता हूं तो लगता है कि हर किसी के जीवन के बनने में ऐसे ही न जाने कितने 12 महीने होंगे, इन्हीं महीने के पल-पल को जोड़ कर हम-आप सब अपने जीवन को संवारते-बिगाड़ते हैं.
किसान हर चार महीने में एक जीवन जीता है. शायद ही किसी पेशे में जीवन को इस तरह टुकड़ों में जिया जाता होगा. टुकड़ों में जीना एक कला है, जैसे पेंटर धीरे-धीरे अपनी पेंटिंग को रूप देता है. चार महीने में हम एक फसल उपजा लेते हैं और इन्हीं चार महीने के सुख-दुख को फसल काटते ही मानो भूल जाते हैं. हमने कभी बाबूजी से सुना था कि किसान ही केवल ऐसा जीव है, जो स्वार्थ को ताक पर रख कर जीवन जीता है. इसके पीछे उनका तर्क होता था कि फसल बोने के बाद किसान इस बात कि परवाह नहीं करता है कि फल अच्छा होगा या बुरा. वह सब कुछ मौसम के हवाले कर जीवन के अगले चरण की तैयारी में जुट जाता है.
किसानी के एहसास को लिखता हूं, इस आशा के साथ कि किसानी को कोई परित्यक्त भाव से न देखे. अभी-अभी विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की कृति ‘आरण्यक’ को एक बार फिर से पूरा किया है.
बंगाल के एक बड़े जमींदार की हजारों एकड़ जमीन को रैयतो में बांटने के लिए एक मैनेजर पूर्णियां जिले के एक जंगली इलाके में दाखिल होता है. जिस कथा शिल्प का विभूति बाबू ने ‘आरण्यक’ में इस्तेमाल किया है, वह अब भी मौजू दिख रहा है. पू्र्णिया जिले की किसानी देश के अन्य इलाकों से अलग है. इस अलग शब्द की व्याख्या शब्दों में बयां करना संभव नहीं है. इसे बस जीकर समझा जा सकता है.
खैर, 2016 के अंतिम महीने के आखिरी दिनों में मक्का, आलू, गोभी और सरसों में डूबा पड़ा हूं. इस आशा के साथ कि आनेवाले नये साल में इन फसलों से नये जीवन को नये सलीके से सजाया जायेगा. लेकिन, जीवन का गणित कई बार सोच कर भी अच्छा परिणाम नहीं देता है.
बाबा नागार्जुन की एक पंक्ति याद आती है, जिसमें वे कहते हैं कि भूखे मरने के बारे में सोचता रहूं और खेती भी ना करूं, ये कैसी जिंदगी कहलायेगी?
इन चार वर्षों में यह एहसास हुआ है कि हम जिंदगी को लेकर इतने दार्शनिक अंदाज में बातें इसलिए करते हैं, क्योंकि हम यह भरम पाल बैठते हैं कि हम जो जीवन जी रहे हैं, वह आसान नहीं है. जबकि सत्य कुछ और है. दरअसल, जीवन को जटिल हम खुद बनाते हैं. दिनकर की कविता याद आ रही है- ‘आदमी भी क्या अनोखा जीव है, उलझने अपनी ही बनाकर, आप ही फंसता और बेचैन हो न जगता न सोता है…’
ठंड का असर बढ़ रहा है. सुबह देर तक कुहासे का असर दिखने लगा है. बाबूजी आज रहते, तो कहते कि इस मौसम में आलू की खेती में सावधानी बरतनी चाहिए, फसल नष्ट होने की संभावना रहती है.
सचमुच, किसानी करते हुए मुझे मौसम से लगाव हो गया है. बादलों को समझने-बूझने लगा हूं. सोमवार सुबह जब पूर्णिया और आसपास बारिश हो रही थी, तो मैं खिड़की से मक्का और आलू के खेत निहार रहा था. बारिश ने पत्तों की हरियाली बढ़ा दी है, मानो फसल भी नये साल में सजने-धजने लगी हो, लेकिन तभी मन में यह गीत बज उठता है- ‘अभी ना जाओ छोड़ कर, कि दिल अभी भरा नहीं…’