अटल बिहारी वाजपेयी को बारह साल से ज्यादा का वक्त हो गया है भारत के प्रधानमंत्री पद की गरिमा को शोभायमान करने के बाद राजनीति से दूर हुए, लेकिन आज भी हम सब बड़ी ही शिद्दत से उन्हें याद करते हैं. बीते एक दशक में अटल जी अपने स्वास्थ्य के कारण सार्वजनिक जीवन से भी दूर हैं, फिर भी भारत की जनता उन्हें बड़ी ही आत्मीयता और अपनेपन से याद करती है. इसका अर्थ है कि उनके नेतृत्व में कुछ असाधारण गुण हैं.
सबसे बड़ा गुण तो यह है कि भारतीय राजनीति में वे ‘अजातशत्रु’ (‘जिसका कोई दुश्मन नहीं होता’ के संदर्भ में) हैं. राजनीति के स्वरूप के अनुसार, राजनीति में रहते हुए किसी का कोई शत्रु न होना, एक बड़ी बात है. भारत के सभी सामाजिक वर्गों के साथ, सभी राजनीतिक दलों के साथ अटल जी का बहुत अच्छा संबंध था और वह इसलिए था, क्योंकि अटल जी के लिए राष्ट्र सर्वोपरि था. पार्टी और राजनीति उनके लिए राष्ट्र के बाद की चीजें थीं. यही वजह है कि उनके 1996 में भारत का प्रधानमंत्री बनने से बहुत पहले से ही लोगों काे यह लगता था कि देश का प्रधानमंत्री अटल जी को ही बनना चाहिए. अंगरेजी में उनके लिए कहा गया कि- ‘दि बेस्ट प्राइम मिनिस्टर ऑफ इंडिया हैज नेवर हैड.’- सत्तर-अस्सी के दशकों में ही लोगों में यह धारणा थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ही भारत के सबसे अच्छे प्रधानमंत्री हैं, जो अभी तक प्रधानमंत्री नहीं बने हैं. लेकिन, जब वे प्रधानमंत्री बने और जिस नेतृत्व क्षमता से उन्होंने देश को दिशा दी, उससे सत्तर-अस्सी की वह धारणा सही साबित हुई.
उनके शासन काल में उनके नेतृत्व की दो चीजें बहुत ही अहम हैं- एक, भारत का विकास और दूसरा, सभी पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को सुधारना. विशेषकर पाकिस्तान के साथ जिस ईमानदारी से संबंधों को सुधारने का अटल जी ने प्रयास किया, वह भारत के राजनीतिक इतिहास में एक आयाम है. फरवरी 1999 में उन्होंने ‘दिल्ली-लाहौर बस’ चलायी, जिस बस में मैं भी था और इसलिए एक प्रत्यक्षदर्शी के नाते मैं बता सकता हूं कि तब पाकिस्तान की जनता में यह उम्मीद गहरे तक बैठ गयी थी कि अटल जी की इस नीति के चलते भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती और शांति स्थापित हो सकती है. उस वक्त लाहौर के गवर्नर हाउस में रिसेप्शन के दौरान दिया गया अटल जी का भाषण एक ऐतिहासिक भाषण है. उस भाषण में अटल जी ने एक कविता भी सुनायी थी- जंग न होने देंगे. उस कविता को सुनने के बाद पाकिस्तानियों की आंखों में आंसू आ गये थे. यह अटल जी ही थे, जिन्होंने यह साबित किया कि एक नेता अपनी ईमानदार और प्रभावी राजनीति से दूसरे देशाें के आम लोगों का दिल जीत सकता है, भाषणबाजी से नहीं.
अटल जी एक बेहतरीन वक्ता था, ऐसे वक्ता जिनके वक्तृत्व में विचारों की शक्ति थी, वाणी की शक्ति थी और ईमानदारी की शक्ति थी. उनके वक्तृत्व में जैसी गहराई हुआ करती थी, किसी और नेता में ऐसा देखने को नहीं मिलता. अटल जी के भाषण में कवि-मन और राष्ट्र नेता का दर्शन, इन दोनों तथ्यों का संगम होता था. आज के नेताओं में यह गुण कहीं देखने को नहीं मिल सकता.
भारत बहुत ही विविधताओं का देश है, फिर भी अटल जी ने अपनी नेतृत्व क्षमता से इस देश को एकसूत्र में बांधे रखा. अटल जी ने संसद में संवाद को बनाये रखने का जो स्तर स्थापित किया था, आज वह नहीं दिख रहा है. संसद में संवादहीनता व्याप्त है और संसद का समय और पैसा दोनों बरबाद हो रहा है. एक-दूसरे की बात सुनना, एक-दूसरे का सम्मान करना और संवाद के स्तर को ऊंचा बनाये रखना संसद की गरिमा के लिए जरूरी होती है. अटल जी ने इस गरिमा को बनाये रखा था. यह अटल जी की खूबी ही थी कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने युवा सांसद अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कहा था कि वे प्रधानमंत्री बनने की योग्यता रखते हैं. संसद का ऐसा स्तर आज कहीं नहीं दिख रहा है.
अटल जी का सार्वजनिक जीवन में आना राजनीति के जरिये नहीं हुआ था, बल्कि साहित्य के जरिये हुआ था. उनका सबसे पहला पदार्पण कविता के क्षेत्र में ही हुआ था. वे बचपन में ही अपने पिता जी के साथ कवि सम्मेलनों में जाया करते थे और उस जमाने के दिग्गज कवियों के साथ कविता पढ़ते थे. उनकी कविताओं में राष्ट्रभक्ति के साथ समाज की समस्याओं और अवस्थाओं के बारे में भी जानने-समझने को मिलता है. राजनीति में आने की बुनियाद में उनका साहित्य ही रहा है. कवि की संवेदनशीलता, दूरदृष्टि और समग्र दृष्टि होती है. इसी समग्र दृष्टि का प्रतिबिंब हमें अटल जी की राजनीति में दिखायी देता है. कवि हृदय वाली उनकी संवेदनशीलता ने उनकी राजनीति को न सिर्फ मजबूत बनाया, बल्कि उनकी शख्सीयत को एक बेहतरीन आयाम दिया.
सबको समान दृष्टि से देखना अटल जी की राजनीति का मुख्य पहलू था. हमारे राजनीतिक शब्दकोश में
एक शब्द है- कोएलिशन धर्मा. सबको साथ लेकर चलने की नीति का पालन करना
ही कोएलिशन धर्मा है. अटल जी ने इस नीति का बखूबी पालन करके दिखाया. जब वे प्रधानमंत्री थे, तब न केवल एनडीए के सबसे छोटे दल के भी लोगों को वे बराबर का सम्मान देते थे, बल्कि साथ ही कांग्रेस जैसे विपक्ष के लोगों को भी वे वैसा ही सम्मान देते थे. हमारे लोकतंत्र और संसद की गरिमा को ऊंचा बनाने के लिए यह बहुत जरूरी है. लेकिन आज जिस तरह से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता हावी है, वह तो अपने दल के लोगों को भी सम्मान करने से रोक रही है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
सुधींद्र कुलकर्णी
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