।। अवधेश कुमार।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
अलग तेलंगाना राज्य विधेयक लोकसभा में जिस तरह पारित किया गया, उस पर आपत्तियां जायज हैं. सारे दरवाजे बंद, बाहर से भीतर तक काले सुरक्षाकर्मियों की फौज. बहस की कोई संभावना नहीं, लाइव प्रसारण स्थगित. आपातकाल जैसा माहौल. सरकार तर्क दे सकती है कि आखिर उसके पास चारा क्या था. अंदर और बाहर तनाव की स्थिति में अगर संसद के इस अंतिम सत्र में विधेयक पारित करना था, तो फिर सरकार को कुछ अभूतपूर्व कड़े इंताजाम करने ही थे. प्रश्न है कि आखिर नौबत यहां तक आयी ही क्यों?
राज्य के विभाजन की मांग को मूर्त रूप देने के पहले दोनों पक्षों के बीच सहमति के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए था. इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि कांग्रेस अपनी प्रदेश सरकार तक को इसके लिए राजी नहीं कर पायी, उसके मुख्यमंत्री तक ने पद और पार्टी से इस्तीफा दे दिया. तेलंगाना पहला राज्य होगा जिसका गठन प्रदेश की विधानसभा द्वारा विभाजन प्रस्ताव खारिज किये जाने के बावजूद हो रहा है. तेलंगाना एवं सीमांध्र क्षेत्र के मंत्रियों, विधायकों एवं सांसदों के बीच उग्रता की इतनी बड़ी खाई पैदा हो गयी कि आज ये एक-दूसरे के जानी-दुश्मन जैसे दिख रहे हैं. ऐसे में विभाजन के बाद का दृश्य कैसा होगा?
सीमांध्र की चिंता अकारण नहीं है. तेलंगाना के अलग होते ही आंध्र के चार महत्वपूर्ण बड़े शहर वर्तमान राजधानी हैदराबाद, वारंगल, निजामाबाद और नलगोंडा उसमें चले जाते हैं. हैदराबाद आंध्र का सबसे विकसित शहर है. यह अलग प्रदेश में चला जाये तो तटीय आंध्र एवं रायलसीमा के लोगों के लिए इसे गले उतार पाना कठिन है. तेलंगाना के साथ केवल 41.6 प्रतिशत आबादी ही नहीं जायेगी, पश्चिम से पूर्व की ओर बहनेवाली चार नदियां मुसी, मंजीरा, कृष्णा और गोदावरी के ज्यादा हिस्से पर इसका अधिकार होगा. 45 फीसदी जंगल तेलंगाना क्षेत्र में है. देश के पास मौजूद कोयले के कुल भंडार का 20 प्रतिशत हिस्सा तेलंगाना में है, यह लाइमस्टोन (चूने का पत्थर) से भी भरपूर इलाका है, जिसकी सीमेंट उद्योग में जरूरत पड़ती है. बाक्साइट और माइका जैसे खनिज भी भरपूर मात्र में यहां हैं. इनका छिन जाना यकीनन बहुत बड़ी क्षति है. हालांकि केंद्र ने इनके लिए क्षतिपूर्ति राशि देने का ऐलान किया है, लेकिन इससे किसी को संतोष नहीं हो सकता.
गौरतलब है कि आजादी के पूर्व और बाद में उतने उग्र आंदोलन के बावजूद उसे अलग क्यों नहीं किया गया? पंडित नेहरू तो आरंभ में तेलुगुभाषियों के लिए मद्रास स्टेट से अलग राज्य के ही पक्ष में नहीं थे, लेकिन श्रीरामुलु की 15-16 दिसंबर, 1952 की रात में आमरण अनशन के दौरान हुई मौत के बाद जो हिंसा फैली उससे वे दबाव में आये और 1 नवंबर, 1953 को मद्रास स्टेट से अलग आंध्र प्रदेश राज्य का गठन कर दिया गया. किंतु राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा अलग तेलंगाना की सिफारिश के बावजूद इसे स्वीकार नहीं किया गया. संप्रग एक में तेलंगाना राष्ट्र समिति के सरकार में शामिल होने से इसकी शुरुआत हुई और कांग्रेस इतना आगे बढ़ गयी कि वापस होने के रास्ते बंद हो चुके थे. तेलंगाना के अंदर कुल 17 लोकसभा क्षेत्र हैं. भाजपा एवं कांग्रेस दोनों की नजरें उन सीटों पर हैं. कांग्रेस के लिए सीमांध्र की 25 लोकसभा सीटों पर चुनौतियां काफी बढ़ गयी हैं. तेलंगाना का विरोध कर रही वाइएसआर कांग्रेस और तेदेपा सीमांध्र के दोनों इलाकों-तटीय आंध्र और रायलसीमा में मजबूत हो रही है. भाजपा मानती है कि वाइएसआर कांग्रेस और तेदेपा के कांग्रेस विरोध के कारण लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता के समीकरण में उसे इन दलों का समर्थन मिल सकता है.
तेलंगाना क्षेत्र के लोगों की कई शिकायतें वाजिब हैं. तेलंगाना के किसानों की शिकायत है कि उनके इलाके में नहरों का विकास उस तरह से नहीं किया गया जैसा होना चाहिए. तेलंगानावासी मानते हैं कि अलग राज्य बनने से ऐसी समस्याओं का समाधान होगा और प्राकृतिक संसाधनों पर उनका हक होगा. लेकिन तेलंगाना की शिकायतों का निदान विभाजन ही था, इस पर एक राय कभी नहीं रही. हकीकत यह भी है कि देश भर में सक्रिय माओवादियों के ज्यादातर प्रमुख नेता तेलंगाना क्षेत्र के ही हैं. आंध्र में सबसे ज्यादा माओवादी हिंसा तेलंगाना क्षेत्र में ही हुआ है. तेलंगाना आंदोलन में माओवादी विचारधारा से प्रभावित लोग शामिल हैं. इसलिए यह आशंका निराधार नहीं है कि विभाजन के बाद तेलंगाना में वे काफी शक्तिशाली होंगे. इसके अलावा हैदराबाद, करीमनगर आदि में जिस तरह आतंकवादियों ने अपना पैर फैलाया हुआ है, वह भी जगजाहिर है. एक छोटे राज्य के लिए इनका सामना करना कितना कठिन होगा, इसकी कल्पना से भय पैदा होता है.