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वाइ-फाइ वाली ‘धोबीज’

नाजमा खान टीवी पत्रकार दुकान के पास हूटर बजाती एक बाइक रुकी. आंखों पर चश्मा लगाये एक झक्कास किस्म का लड़का तेजी से उतरा. मुंह में चुइंगम चबाता हुआ एक बैग लेकर सीधा दुकान में घुसा और बैग को एक कोने में पटकते हुए बोला, ‘अगली कॉल के लिए मैं नहीं जाऊंगा.’ कुछ देर बाद […]

नाजमा खान
टीवी पत्रकार
दुकान के पास हूटर बजाती एक बाइक रुकी. आंखों पर चश्मा लगाये एक झक्कास किस्म का लड़का तेजी से उतरा. मुंह में चुइंगम चबाता हुआ एक बैग लेकर सीधा दुकान में घुसा और बैग को एक कोने में पटकते हुए बोला, ‘अगली कॉल के लिए मैं नहीं जाऊंगा.’ कुछ देर बाद वह लड़का पैर पटकते हुए बाहर आया और बुदबुदाते हुए बाइक पर बैठ निकल गया.
मैं बाहर खड़ी यह सब देख रही थी. शानदार दुकान थी. मेरा दिल कई दिनों से उस दुकान के अंदर जाकर देखने का कर रहा था. वह दुकान कपड़ों की धुलाई की थी, जिसे हम कूल जुबान में लॉन्ड्री सर्विस वाली दुकान कहते हैं. खैर, मैं अंदर गयी. ‘एेट योर सर्विस’ कहते हुए एक लड़का मेरी तरफ लपका. लेकिन, मैं तो कपड़ों की धुलाई की बदली हुई ‘परंपरा’ को देखने के लिए अंदर गयी थी.
दिल्ली के मुनीरका में हाल में खुली यह दुकान मेरे लिए नया तजुर्बा थी. दुकान में विदेशी स्टाइल में आस-पास के लोगों के ही नहीं, बल्कि पास स्थित जेएनयू के छात्रों के भी कपड़े-लत्ते धुलने के लिए आते हैं. मैं जब भी यहां से गुजरती हूं, इस दुकान का नाम ‘धोबीज’ मुझे अपनी ओर खींचता है. यह दुकान मुझे मेरे बचपन के दिन याद दिलाती है.
मेरे गांव में एक महिला थी, जो हमारे कपड़े धोने के लिए पोखर में ले जाती थी. जब कपड़े धोकर वापस लाती, तो घर में हंगामा हो जाता. उसकी गठरी में बंधे कपड़ों की सिलवटें जाने में हफ्तों लग जाते और अगर सफेद रंग का कोई कपड़ा चला जाता, तो उसका रंगीन होना तय ही माना जाता था.
हालांकि, इस गलती के लिए उसे कभी कुछ नहीं कहा जाता, बल्कि कपड़े देनेवाले की शामत आ जाती. उसके कानों की गोल बालियों में गांव के सारे राज कैद होते और उसकी नाक की झुलनी तो बहुत कमाल लगती. उसका हाथों को नचा-नचा कर बतियाना और घंटों बैठ कर उठते वक्त कहना कि ‘ए दीदी, तू त हमार सब बखत खतम कई दिहली’, बहुत ही भाता था. वह भले ही दो हाथ का घूंघट निकालती, लेकिन गांव के दूसरे छोर पर बैठी औरतों की चुहल में किसका जिक्र होता, वह फौरन भांप लेने का हुनर रखती थी. और चलते-चलते प्यारी आवाज में एक से बढ़ की एक लोकगीत गुनगुनाती. उसकी प्यारी आवाज और उस बाइक वाले के हूटर का कोई संबंध नहीं है, पर जाने क्यों दिल तुलना कर रहा है.
शहर वाला बाइक सवार भले ही कूल है, पर इसकी बाइक में वह मदमस्ती नहीं है, जो गांव की उस महिला में थी. धोबीज में बड़ी-बड़ी ऑटोमेटिक वॉशिंग मशीनें आधे घंटे में ही कपड़ों को धो-सुखा कर परोस देती हैं. अगर आप कपड़े धुलवाने खुद आये हैं, तो बोर होने की गुंजाइश नहीं रहती, क्योंकि ‘धोबीज’ वाइ-फाइ से लैस है. कपड़ों को धोने-सुखाने के साथ ही होम डिलीवरी भी है. ऑनलाइन या ऑफलाइन जैसे चाहे कपड़े धुलवाइये और आराम फरमाइये.
धोबीज से कपड़े धुलवाने में वक्त की बचत भी है. फिर भी मुझे गांव की वह चुलबुली धोबनिया ही भाती है, जो सुबह होते ही कपड़ों के साथ गीतों की पोटली लिये पोखर पर जाती थी और पाटों पर धोबी पछाड़ देती थी. अब गांवों से यह चलन तकरीबन खत्म हो चला है.
खुशी है कि समाज ने तरक्की की है, लेकिन दुख है कि मेल-जोल की वह परंपरा खत्म हो गयी है. वह धोबनिया परंपरा अब हाइ-फाइ और वाइ-फाइ वाली ‘धोबीज’ में बदल चुकी है, जहां हो सकता है कि कपड़े धुल कर अपनी खुशबू से अालमारी को महका देते हों, पर यकीनन उन कपड़ों में वह बात नहीं, जो गांव की मिट्टी से तार जोड़ते हों.

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