।। लोकनाथ तिवारी।।
(प्रभात खबर, रांची)
हर वर्ष की तरह इस बार भी वैलेंटाइन डे पूरे जोश के साथ मनाया गया. प्रेम का इजहार कभी खतरे से खाली नहीं होता. सैंडल-पैजार की आशंका बनी रहती है. कुछ देकर दिल खुश करने के बाद अपने दिल की भावनाओं को जुबान पर लाने से खतरा कम होता है. रोज डे, प्रपोज डे, चॉकलेट डे, टेडी बीयर डे, हग डे और किस डे के बाद वैलेंटाइन डे के आगमन का शायद यही वैज्ञानिक कारण है. इन दिनों के बहाने प्रेमी अपने दिल की हसरत पूरा करने के पहले कुछ न कुछ देकर अपनी सुरक्षा पुख्ता करने की कोशिश करते हैं.
कुछ देकर दिल लेने या देने की परंपरा हमारे देश में कहां से आई, इसका कोई पुख्ता इतिहास नहीं मिल पाया है. काका ने बताया कि पहले चिट्ठी-पतरी के माध्यम से दिल की बात कही जाती थी, जिसमें बहुत खतरा भी होता था. खत के साथ फूल भी होता था. साथ में यह करबद्ध निवेदन भी कि इसे अपने भाई, पिता या काका के हाथ में नहीं पड़ने दें. भले ही प्रेम प्रस्ताव ठुकरा कर राखी बांध दें. प्रेम के इजहार में अच्छे-अच्छों की घिग्घी बंध जाती थी. कभी मुहल्ले के पप्पू के जरिये, तो कभी ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’ की तरह सखी या सखा के माध्यम से दिल का हाल बताया जाता था.
शुक्र है मोबाइल फोन का, जिसने प्यार के इजहार को हलवा खाने जितना आसान बना दिया है. एसएमएस भेज कर आप अपनी बात बेहिचक कह सकते हैं. कई प्रेमी सीधे फोन करने का रिस्क उठा लेते हैं. इसके अलावा नेट चैट, सोशल साइट, ई-मेल के जरिए भी आधुनिक प्रेमी अपनी बात गंतव्य तक पहुंचा देते हैं. न इज्जत की चिंता, न फिक्र किसी अपमान की. आजकल के प्रेमियों को किसी गाली या थप्पड़ का डर नहीं होता. ये तो राह चलते शोहदों की तरह अपनी बात कह देते हैं. बदले में इडियट, स्टुपिड या मुंहझौंसा जैसे विशेषण सुनकर भी ही-ही कर दांत निकालते हैं.
वैलेंटाइन डे के मौके पर प्रेमियों के लिए ‘करो या मरो’ वाली स्थिति होती है. अगर मौका हाथ से गया तो साल भर हाथ मलने की नौबत आ सकती है. और क्या गारंटी कि अगले वैलेंटाइन डे पर वह किसी और का प्यार नहीं हो जायेगा. इस ‘फास्ट’ जमाने में गारंटी की उम्मीद वैसे भी बेमानी है. लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हड़बड़ा जायें. लवगुरु ओं का मानना है कि एक दिन में किला फतह नहीं किया जा सकता. इसलिए प्यार की गाड़ी न बहुत तेज चलायें न बहुत धीमे. प्यार में पिटने की नौबत आ सकती है, लेकिन वीर बालक वही हैं जो गिर-गिर कर संभलते हैं और जब तक किला फतह न हो जाये, चैन से नहीं बैठते. ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है- शायर की यह बात पुराने जमाने की है. अब मामला उतना कठिन भी नहीं रहा. बस प्रेमी अपना आदर्श-वाक्य यह रखें : गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में..