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राजधर्म निभाएं राजनेता

संकट काल में सामान्य दिनों जैसा व्यवहार आत्मघाती हो सकता है, यही सोच कर हमारे मनीषियों ने ‘आपद्-धर्म’ की कल्पना की थी. ‘आपद्-धर्म’ का विचार कहता है कि सामान्य दिनों वाले किसी व्यवहार के यदि किसी संकट की घड़ी में व्यक्ति या समाज के लिए घातक होने की आशंका हो, तो उसे हालात सामान्य होने […]

संकट काल में सामान्य दिनों जैसा व्यवहार आत्मघाती हो सकता है, यही सोच कर हमारे मनीषियों ने ‘आपद्-धर्म’ की कल्पना की थी. ‘आपद्-धर्म’ का विचार कहता है कि सामान्य दिनों वाले किसी व्यवहार के यदि किसी संकट की घड़ी में व्यक्ति या समाज के लिए घातक होने की आशंका हो, तो उसे हालात सामान्य होने तक स्थगित रखा जाना चाहिए.

लेकिन, लगता है सेना के ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पर गैर-जिम्मेवाराना बयान देनेवाले राजनेता भारतीय चिंतन परंपरा की इस बुनियादी बात को सिरे से भुला बैठे हैं. वे भुला बैठे हैं कि राष्ट्रहित से बड़ी राजनीतिक सच्चाई कुछ और नहीं हो सकती. यह राष्ट्रहित को दावं पर रख कर अपने संकुचित राजनीतिक हितों के संवर्धन की मंशा का ही संकेत है कि कांग्रेस नेता संजय निरूपम अपने बड़बोलेपन के साथ कह गये- ‘हर भारतीय पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक चाहता है, लेकिन भाजपा द्वारा राजनीतिक लाभ उठाने के लिए फर्जी (सर्जिकल स्ट्राइक) नहीं.’ सर्जिकल स्ट्राइक को फर्जी बताने के उत्साह में वे यह भी भुला बैठे कि ठीक यही पक्ष पाकिस्तान का भी है.

भारत के सर्जिकल स्ट्राइक से अचंभित पाकिस्तान यह साबित करने में जुटा है कि पाक-अधिकृत कश्मीर (पीओके) में ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं. कारण साफ है, पाकिस्तान द्वारा इस सर्जिकल स्ट्राइक को स्वीकार करने का सीधा मतलब होता पीओके में आतंकी कैंप मौजूद होने की बात स्वीकार करना. अब अपने नेता के असंवेदनशील बयान से किरकिरी होने की आशंका देख कांग्रेस ने भले ही इससे पल्ला झाड़ लेने में बेहतरी समझी हो, फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि संकट के वक्त में भी राष्ट्रहित में नहीं सोच पाने की यह मानसिकता कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं के भीतर बढ़ते राजनीतिक दिवालियेपन का संकेतक है.

हालांकि, ऐसे गैर-जिम्मेवाराना बयानों से राष्ट्रहित को ठेस पहुंचानेवालों में सिर्फ कांग्रेसी ही नहीं हैं.

हमेशा खबरों में बने रहने की मनोभावना से प्रेरित होकर राजनीति करनेवाले अरविंद केजरीवाल ने भी चतुराई भरे शब्दों में जहां एक तरफ नरेंद्र मोदी के फैसले को सलामी दी, वहीं यह सलाह भी दे डाली कि पाकिस्तान दुनिया के पत्रकारों को मौका-मुआयना करा कर बता रहा है कि सर्जिकल स्ट्राइक नहीं हुई, इसलिए सरकार को चाहिए कि वह पाकिस्तान के दुष्प्रचार की काट में सबूत उपलब्ध कराये, लोगों को दिखाये कि यह रहे पीओके से भारत में घुसपैठ को आतुर आतंकियों के पनाहगाहों पर भारत के सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत! केजरीवाल की द्विअर्थी चतुरबयानी तो यही कहती प्रतीत हो रही है कि जब तक आधिकारिक प्रमाण नहीं उपलब्ध करा दिया जाये, तब तक वे भारत सरकार के साहसी फैसले और सेना की पराक्रम भरी कार्रवाई को सच नहीं मानेंगे.

ऐसे राजनेताओं को भारत के राजनीतिक इतिहास पर गौर करना चाहिए, जहां देशहित को दलगत राजनीति से ऊपर रखनेवाले राजनेताओं की अनेकानेक मिसालें दर्ज हैं. वर्तमान में भी बिहार, बंगाल आदि राज्यों में सत्ता पर काबिज दलों के प्रमुखों ने देशहित में ऐसी किसी भी बयानबाजी से परहेज किया है. उधर, प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने बड़बोले नेताओं और मंत्रियों को सख्त नसीहत दी है कि सर्जिकल स्ट्राइक पर बयानबाजी न करें, इस पर जिन लोगों को बोलने के लिए अधिकृत किया गया है, सिर्फ उन्हें ही बोलना चाहिए.

यह सही है कि शासन के प्रत्येक मामले में पारदर्शिता एक श्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्था का लक्षण है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करनेवाले भारत के लिए राजकाज के मामले में अधिकाधिक पारदर्शिता बरतना एक सहज स्वभाव होना चाहिए, लेकिन पारदर्शिता का यह आचरण राजनीति के सामान्य दिनों के लिए ही जायज है.

जब देश की सीमा पर हालात गंभीर से गंभीरतर हो रहे हों, शत्रुता पर उतारू एक राष्ट्र अपने छद्मयुद्ध के जरिये भारतीय राजव्यवस्था को लगातार चोट पहुंचाने पर उतारू हो, ऐसे संकटपूर्ण हालात में राजकाज के मामले में पारदर्शिता बरतने के नियम को कुछ समय के लिए स्थगित करना ही ‘आपद्-धर्म’ के विचार से उचित कहलायेगा. हमें नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया का कोई भी लोकतांत्रिक देश अपने सैन्य-मामलों में सब कुछ साफ-साफ बताने-दिखाने जैसा आत्मघाती कदम नहीं उठाता है. सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत सार्वजनिक करना पाक सेना को उकसाने और अंतत: पाकिस्तान में लोकतंत्र को कमजोर करने का सबब बन सकता है.

आतंकियों के खिलाफ भारत की इस कार्रवाई का समर्थन दुनिया के कई देश कर चुके हैं. ऐसे में देश के भीतर ही इस पर सवाल उठाने और सबूत मांगनेवाले राजनेताओं को यह भी समझना चाहिए कि केंद्र सरकार का यह साहस भरा फैसला भारत की परंपरागत पाक-नीति से बिल्कुल अलग है. यह सिर्फ आत्मरक्षा के लिए तैयार रहने की नीति नहीं है, बल्कि दुश्मन की चाल को समय रहते भांप कर उसे भरपूर चोट पहुंचाने की नीति है.

कहने की जरूरत नहीं कि पाक की दशकों से जारी शत्रुतापूर्ण एवं नापाक हरकतों की काट में भारत की निर्वाचित सरकार ने जब कोई नया रणनीतिक फैसला कर लिया है, तो वह किसी एक दल का नहीं, बल्कि विधि द्वारा स्थापित भारत की राजसत्ता का फैसला है, पूरे देश का फैसला है. सीमा पर गहराते संकट की इस घड़ी में ऐसे किसी भी फैसले से इनकार असल में राजधर्म से विचलन का सूचक है, जिसकी इजाजत किसी भी राजनेता को नहीं दी जा सकती.

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