सार्वजनिक जीवन जीने और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करनेवाले लोग जानते हैं कि संवाद से ही समुदाय बनता है, चाहे वह कोई छोटा सा क्लब हो या फिर पूरा राष्ट्र! इसके लिए उसके सदस्यों के बीच किन्हीं बातों पर न्यूनतम सहमति जरूरी होती है.
ठीक इसी कारण अभिव्यक्ति की आजादी देनेवाले हमारे देश के संविधान में गुंजाइश रखी गयी है कि किसी व्यक्ति या संस्था की कोई बात राष्ट्र रूप में बने रहने के लिए जरूरी न्यूनतम सहमतियों पर चोट करनेवाली हो, तो उस पर समय रहते पाबंदी लगायी जा सके. लेकिन वह व्यक्ति क्या करे, जिसका सार्वजनिक जीवन इस बात पर ही टिका हो कि वह कितने ज्यादा भड़काऊ बयान देता है?
ऐसा व्यक्ति जानता है कि मामला अदालत तक पहुंच जाये, तो भी उसका दोष सिद्ध होने में बरसों लग जायेंगे. सो ऐसा व्यक्ति राष्ट्रहित को ताक पर रख कर भड़काऊ और सांप्रदायिक बयान देता फिरता है. भाजपा के एक सांसद कह रहे हैं कि अयोध्या के विवादित ढांचे को तोड़ने से कोई नहीं रोक सका, तो वहां राममंदिर बनने से कौन रोक सकता है, तो दूसरा सांसद राममंदिर बनने की तारीख (2019) तक बता रहा है.
जाहिर है, ऐसा वही कह सकता है, जो खुद को कानून के ऊपर माने, या जिसे अपने मनमानेपन को ही कानून कहने की जिद हो. बयान में चतुराई इतनी है कि महज एक वाक्य के भीतर ‘बाबरी मसजिद’ को ‘विवादित ढांचा’ कहा गया है और लोगों की स्मृति से यह याद भी पोंछ दी गयी है कि अयोध्या-प्रकरण में यूपी के ही मुख्यमंत्री को कोर्ट ने प्रतीकात्मक तौर पर ही सही, सजा सुनायी थी. अफसोस कि केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के भीतर ऐसे सांसद एक नहीं अनेक हैं और यूपी में गर्म होते चुनावी माहौल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए एक ही सुर में बोल रहे हैं.
योगी आदित्यनाथ को लग रहा है कि मदर टेरेसा देश में ईसाईकरण की जिम्मेवार हैं और पूर्वोत्तर के राज्य ईसाई होने के कारण भरोसे के काबिल नहीं, तो मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री रामशंकर कठेरिया कह रहे हैं कि शिक्षा का भगवाकरण तो होकर रहेगा. ऐसे बोलों से सरहद के बाहर देश की छवि बिगड़ती है और सरहद के भीतर अमन को खतरा पैदा होता है. इस खतरे को भांप कर जितनी जल्दी ऐसे भड़काऊ बोलों पर लगाम लगे उतना ही अच्छा!