यह कहना कतई अनुचित नहीं होगा कि झारखंड में अल्पसंख्यकों की अनदेखी की गयी है. मोमिनों को बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिल रही हैं. शिक्षा का स्तर खराब है. जब धर्मनिरपेक्ष व विकसित समाज की कल्पना करते हैं, तो सभी समुदायों का समान रूप से विकास जरूरी है.
लेकिन, झारखंड में मदरसा बोर्ड व वक्फ बोर्ड तक का गठन नहीं हुआ है. अगर मुसलिम समाज के कुछ बच्चों के गुमराह होने की खबरें आ रही हैं, तो इसका कारण है, गुणवत्तापूर्ण समुचित शिक्षा का अभाव. यानी, इस भटकाव के लिए कहीं न कहीं सरकार दोषी है. झारखंड बनने के बाद से आज तक जो भी सरकारें बनीं, वे सिर्फ अपनी कुरसी बचाने में लगी रहीं.
जनता की परवाह नहीं की. अब जबकि 13 वर्ष बीत चुके हैं, सरकार ने मोमिनों की मांग पर 15 फरवरी तक निर्णय लिये जाने की बात कही है. रांची में आयोजित झारखंड प्रदेश मोमिन कांफ्रेंस के महासम्मेलन में मुख्यमंत्री व अन्य मंत्रियों ने यह आश्वासन दिया है कि मोमिनों की मांगें जायज हैं और उन्हें पूरा किया जायेगा. लेकिन, यह सम्मेलन ऐसे समय में हुआ है, जब लोकसभा चुनाव नजदीक हैं.
कहीं सरकार सिर्फ वोट के लिए तो आश्वासन नहीं दे रही है? उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसा नहीं है. आजादी के बाद से आज तक सभी पार्टियां मोमिनों को वोट के लिए इस्तेमाल करती आ रही हैं. कभी इनके हालात पर गौर नहीं किया गया. संताल परगना के साहिबगंज व पाकुड़ दो ऐसे जिले हैं, जहां मोमिनों की संख्या अधिक है.
लेकिन, उनकी हालत यह है कि साहिबगंज में मात्र 8.4 फीसदी मुसलमानों को ही बुनियादी सुविधा प्राप्त है. वहीं पाकुड़ में मात्र 5.8 फीसदी को. ऐसे में अकलीयतों की यह मांग की झारखंड में रंगनाथ मिश्र व सच्चार कमेटी की अनुशंसा को लागू किया जाये, इसे जल्द पूरा करने की जरूरत है.
जब तक यह समुदाय विकसित नहीं होगा, हम पूर्ण कल्याणकारी समाज की परिकल्पना नहीं कर सकते हैं. सरकार को मोमिनों की सभी मांगों पर त्वरित गति से विचार करना चाहिए. समाज में एकजुटता जरूरी है. इसके लिए समभाव की भावना होनी चाहिए. मोमिनों का जीवनस्तर सुधारना हम सभी का दायित्व है. मंत्रीगण कथनी के साथ-साथ करनी पर भी जोर दें, तो कोई भी काम नामुमकिन नहीं.