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राजनीतिक भ्रष्टाचार पर नियंत्रण

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।। अर्थशास्त्री राजनीति के व्यापार में नेताजी को अधिक, मतदाता को कम लाभ मिल रहा है. नेताओं के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जरूरी है कि गंभीर प्रत्याशियों की संख्या में वृद्घि हो.इसके लिए नये गंभीर प्रत्याशियों को वित्तीय मदद देनी चाहिए. आज राजनीति एक प्रकार का व्यापार बन गया […]

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।

अर्थशास्त्री

राजनीति के व्यापार में नेताजी को अधिक, मतदाता को कम लाभ मिल रहा है. नेताओं के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जरूरी है कि गंभीर प्रत्याशियों की संख्या में वृद्घि हो.इसके लिए नये गंभीर प्रत्याशियों को वित्तीय मदद देनी चाहिए. आज राजनीति एक प्रकार का व्यापार बन गया है. नेताजी द्वारा पहले वोट खरीदने में निवेश किया जाता है. चुनाव जीतने पर सट्टा खरा उतरता है. निवेश की गयी रकम को चुनाव जीतने के बाद घूस के माध्यम से वसूल किया जाता है. मतदाता भी व्यापार करता है. वह सड़क अथवा साड़ी के एवज में वोट देता है.

वर्तमान में यह व्यापार नेताओं के पक्ष में झुका हुआ है. नेताजी को अधिक लाभ और मतदाता को कम मिल रहा है. उपाय ढूंढ़ने की जरूरत है कि इस व्यापार को मतदाता के पक्ष में कैसे मोड़ा जाये. प्रतिस्पर्धा से हर व्यापार पर नियंत्रण होता है. जैसे नुक्कड़ पर एक अकेला ऑटो रिक्शा खड़ा हो तो वह मनमाना भाड़ा वसूल करता है. पांच ऑटो खड़े हों, तो भाड़ा स्वत: नीचे जाता है.

इसी तरह यदि गंभीर प्रत्याशियों की संख्या अधिक होगी, तो मतदाता उसे चुनेगा जिससे उसे ज्यादा लाभ मिलेगा. इसलिए नेताओं के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जरूरी है कि गंभीर प्रत्याशियों की संख्या में वृद्घि हो.

मेरा मानना है कि इसके लिए नये गंभीर प्रत्याशियों को वित्तीय मदद देनी चाहिए. उदाहरणस्वरूप, छोटे उद्यमियों को प्रोत्साहन देने के लिए कैपिटल सब्सिडी स्कीम चलायी गयी थी. उद्देश्य था कि बड़ी कंपनियों के सामने खड़े होने के लिए छोटे उद्यमी को सहारा चाहिए. छोटा उद्यमी खड़ा हो जाये, तो वह बाद में बड़े को भी मात दे सकता है. इसी प्रकार नये गंभीर प्रत्याशियों को समर्थन देने से स्थापित नेताओं की मोनोपोली को चुनौती दी जा सकती है.

वित्तीय मदद के कई तरीके हो सकते हैं. एक यह कि पिछले चुनाव में जितने वोट मिले हों, उनके अनुसार मदद दी जाये. दूसरा कि हर मतदाता को एक वाउचर दिया जा सकता है. प्रत्याशी द्वारा जितने वाउचर एकत्रित किये जा सकें, उतनी रकम उसे दे दी जाये.

राजनीतिक भ्रष्टाचार में वृद्घि का दूसरा कारण है कि हमने लोकतंत्र को पार्टीतंत्र में बदल दिया है.

जनप्रतिनिधि स्वयं अपनी बुद्घि से कार्य नहीं कर सकता है. ऐसे में मतदाता द्वारा जनप्रतिनिधि को नहीं, बल्कि पार्टी को चुना जाता है. जनता को मात्र यह अधिकार रह गया है कि पार्टियों द्वारा प्रस्तुत मीनू में से किसी एक आइटम का चयन करें. जनता अपना मीनू नहीं बना सकती है. सभी पार्टियां सरकारी कर्मियों को खुश रख कर चुनाव जीतना चाहती हैं. इसे यूं समझा जा सकता है कि जनता के विरोध में सभी पार्टियां एकजुट हैं. ऐसे में चुनाव की क्या सार्थकता है?

अमेरिकी लोकतंत्र इस मामले में बेहतर है. वहां सिनेटर को पार्टी के बतायेनुसार मत देना जरूरी नहीं है. यह वास्तविक लोकतंत्र के नजदीक है, चूंकि जनता द्वारा चुना गया व्यक्ति अपने मतदाताओं की अपेक्षानुसार वोट दे सकता है. अपने देश में सांसद अपनी बुद्घि से वोट नहीं दे सकता है.

लोकतंत्र पर पार्टियों के इस शिकंजे को तोड़ने के लिए ईमानदार लोग स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ें. संकल्प हो कि वे किसी भी पार्टी को समर्थन नहीं देंगे और हर विषय पर अपना स्वतंत्र मत डालेंगे. यदि ऐसी स्थिति बने कि किसी भी कानून को पारित कराने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी को इन स्वतंत्र सांसदों में से कुछ का समर्थन लेना होगा, तो इनके द्वारा डाला गया मत जनता की आवाज के अनुरूप हो सकता है, क्योंकि ये पार्टी के अंकुश के बाहर होंगे. लेकिन विडंबना है कि पिछले 60 वर्षो में देश में स्वतंत्र प्रत्याशियों की गति भी निराशाजनक रही है.

इसलिए हमें नये प्रकार के स्वतंत्र प्रत्याशी का सृजन करना होगा. इन प्रत्याशियों के मैनिफिस्टो में सत्ता से बाहर रहने का संकल्प रहेगा. सत्ता किसी भी पार्टी के पास रहे, ये विपक्ष में बैठ कर सत्तारूढ़ पार्टी पर नियंत्रण करेंगे. इनके द्वारा केवल मुद्दे पर वोट दिया जायेगा. अविश्वास प्रस्ताव पर ये तटस्थ रहेंगे. सरकार चाहे जो बनाये इनका ध्यान मुद्दों पर सही निर्णय लेने की ओर होगा. मेरा मानना है कि अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, किरण बेदी आदि को स्वतंत्र रूप में चुनाव लड़ना चाहिए.

भ्रष्टाचार नियंत्रण का मुख्य पहलू सत्तारूढ़ नेताओं पर अंकुश लगाने का है. संविधान में राष्ट्रपति, सीएजी, सीवीसी जैसे कई स्वतंत्र पद हैं, परंतु इन पर आसीन लोगों के द्वारा सरकार की ही भाषा बोली जाती है, क्योंकि इनकी नियुक्ति सरकार करती है. लोकपाल कानून यदि पारित हो गया, तो उसके परिणाम भी ऐसे ही होंगे. कई संवैधानिक पदों की नियुक्ति के समय वर्तमान में भी विपक्ष की राय ली जाती है, परंतु यह निष्प्रभावी है.

इसलिए इन पदों पर नियुक्ति की दूसरी प्रक्रिया होनी चाहिए, जो कानून के दायरे में हो, परंतु सरकार के दायरे में हो. जैसे, सीएजी की नियुक्ति चार्टर्ड अकाउंटेंट्स इंस्टीट्यूट एवं चैंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्षों के कॉलेजियम के द्वारा हो सकती है. राष्ट्रपति को सीधे जनता द्वारा अमेरिकी पद्घति के अनुरूप चुना जा सकता है. इससे स्वतंत्र व्यक्तियों के पदासीन होने की संभावना बढ़ेगी और भ्रष्टाचार पर कुछ हद तक नियंत्रण हो सकेगा.

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