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छोटे किसान क्यों न छोड़ें खेती?

मॉनसून हमारे किसानों के लिए सदियों से जुए जैसा ही रहा है. आसमानी बारिश से सिंचाई के समुचित साधन उपलब्ध नहीं होने के कारण अब मजबूरन छोटे किसानों को रास्ते बदलने पड़ रहे हैं. बाजार में कीमतें आसमान छू रही हैं और छोटे के किसानों के पास नकदी की कमी है. सोचने वाली बात यह […]

मॉनसून हमारे किसानों के लिए सदियों से जुए जैसा ही रहा है. आसमानी बारिश से सिंचाई के समुचित साधन उपलब्ध नहीं होने के कारण अब मजबूरन छोटे किसानों को रास्ते बदलने पड़ रहे हैं. बाजार में कीमतें आसमान छू रही हैं और छोटे के किसानों के पास नकदी की कमी है.
सोचने वाली बात यह भी है कि किसान अपने उत्पाद को लेकर बाजार में जाता है, तो उसे बाजार भाव के अनुकूल दाम नहीं मिलते. स्थिति यह है कि धान जैसी प्रमुख फसल की भी उचित कीमत नहीं मिल पाती है. उसका भाव भी बीते कई सालों से यथावत बना हुआ है. यह विडंबना ही है कि पर्यावरण प्रदूषण के कारण अब समय पर मॉनसून नहीं आता और न किसानों को समय पर सिंचाई से साधन मिल पाते हैं.
हालांकि, सरकार ने किसानों के नाम पर अनेक परियोजनाओं की शुरुआत की है, लेकिन वह भी मॉनसून की बारिश की तरह सिर्फ पानी का छिड़काव के समान है. पहले के जमाने में किसान धान और गेहूं जैसी प्रमुख फसलों पर अपना जीवन-यापन करता था, लेकिन एक रुपये की दर पर 35 किलोग्राम चावल और पांच रुपये में दाल-भात योजनाओं ने उनकी कमर तोड़ दी है.
इन योजनाओं के कारण छोटे किसानों को श्रमिक भी नहीं मिलते. पैसों की कमी को पूरा करने के लिए ज्यादातर श्रमिक शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. हर साल श्रमिकों के पलायन का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है. नकदी की कमी से जूझ रहे किसान श्रमिकों को वह मजदूरी नहीं दे पाते, जो श्रमिकों को जीवन-यापन के लायक हो.
ऐसी स्थिति में उन्हें शहरों की ओर रुख करना पड़ रहा है. वहीं, कुदरती कहर झेल रहे किसान फसल को उपजाने में जितनी राशि खर्च करते हैं, उन्हें उस अनुपात में राशि की वापसी भी नहीं होती. ऐसे में यदि सीमांत और छोटा किसान खेती करना न छोड़े, तो आखिर वह करे क्या?
-हरीश्चंद्र महतो, पश्चिमी सिंहभूम

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