डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
प्रशांत महासागर के द्वीपीय राज्यों के प्रमुखों से वार्ता करने के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लोबल वार्मिंग के प्रति भारत की गंभीरता का आश्वासन दिया. ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय एवं अंटार्कटिका में जमे हुए ग्लेशियर के पिघलने का अनुमान है. इस पानी के कारण समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और कई द्वीप जलमग्न हो सकते हैं. मोदी की आगामी अमेरिकी यात्रा में भी ग्लोबल वार्मिंग पर अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से चर्चा हो सकती है.
पिछले 100 वर्षों में भारत में तापमान 0.6 डिग्री बढ़ा है. अनुमान है कि इस सदी के अंत तक इसमें 2.4 डिग्री की वृद्धि होगी, जो पिछली सदी में हुई वृद्धि का चार गुना है. दुनिया के तमाम देशों द्वारा स्थापित इंटरगवर्नमेंटल पैनल आॅन क्लाइमेट चेंज ने अनुमान लगाया है कि बाढ़, चक्रवात तथा सूखे की घटनाओं में भारी वृद्धि होगी. विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार, जो भीषण बाढ़ अब तक 100 वर्षों में एक बार आती थ, वैसी बाढ़ हर दस वर्षों में आने की संभावना है.
पूरे वर्ष में होनेवाली वर्षा लगभग पूर्ववत रहेगी, परंतु इसका वितरण बदल जायेगा. जोर बारिश के बाद लंबा सूखा पड़ सकता है.
पिछली सदी में हुई तापमान में मामूली वृद्धि से हजारों किसान आत्महत्या को मजबूर हुए हंै. अनुमान लगाया जा सकता है कि चार गुना वृद्धि से कितनी तबाही मचेगी. यह दुष्प्रभाव असिंचित खेती पर ज्यादा पड़ेगा. देश के बड़े इलाके में बाजरा, मक्का तथा रागी की खेती होती है, जो पूर्णयता वर्षा पर निर्भर है.
वर्षा का पैटर्न बदलने से ये फसलें चौपट होंगी. जाड़े में हानेवाली वर्षा रबी की फसल के विशेषकर उपयोगी होती है. इस वर्षा में भी कमी का अनुमान है. फलस्वरूप वर्तमान में सिंचित क्षेत्रों में भी सिंचाई की मांग बढ़ेगी, लेकिन पानी की उपलब्धता घटेगी. अनुमान है कि पहाड़ी क्षेत्रों में पड़नेवाली बर्फ की मात्रा कम होगी, जिससे गरमी में नदियों में पानी की मात्रा कम होगी. इसके अतिरिक्त हमारे तालाब भी सूख रहे हैं.
लगभग पूरे देश में ट्यूबवेल की गहराई बढ़ायी जा रही है और भूमिगत जल का अतिदोहन हो रहा है. जितना पानी वर्षा के समय भूमि में समाता है, उससे ज्यादा निकाला जा रहा है. सरकार की नीति है कि वर्षा के जल को टिहरी तथा भाखड़ा जैसे बड़े बांधों में जमा कर लिया जाये. बढ़ते तापमान के सामने यह रणनीति भी फेल होगी, चूंकि इन तालाबों से बड़ी मात्रा में वाष्पीकरण होगा, जिससे पानी की उपलब्धता घटेगी. हम हर तरफ से घिरते जा रहे हैं. सिंचाई की मांग बढ़ेगी, परंतु पानी की उपलब्धता घटेगी. बाढ़ पर नियंत्रण करने से भूमिगत जल का पुनर्भरण नहीं होगा. बड़े बांधों से वाष्पीकरण होने से पानी की हानि ज्यादा होगी.
एक और संकट सामरिक है. एक अध्ययन के मुताबिक, यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका के देशों की कृषि के लिए ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव सकारात्मक होगा. वर्तमान में वहां ठंड ज्यादा पड़ती है. तापमान वृद्धि से इन देशों का मौसम कृषि के अनुकूल हो जायेगा. अत: विकसित देशों का पलड़ा भारी हो जायेगा. उनके यहां खाद्यान उत्पादन बढ़ेगा, जबकि हमारे यहां घटेगा.
इस उभरते संकट का सामना करने के लिए हमें अपनी कृषि और जलनीति में मौलिक परिवर्तन करने होंगे. हरित क्रांति के बाद हमने खाद्यान्नों की अपनी पारंपरिक प्रजातियों को त्याग कर हाइ इल्डिंग प्रजातियों को अपनाया है. इससे खाद्यान्न उत्पादन भी बढ़ा है, परंतु ये प्रजातियां पानी के संकट को बर्दाश्त नही कर पाती हैं. पर्याप्त पानी न मिलने पर इनका उत्पादन शून्यप्राय हो जाता है.
प्रश्न है कि इनकी खेती से आयी उत्पादन में गिरावट की भरपाई कैसे होगी? उपाय है कि अंगूर, लाल मिर्च, मेंथा और गन्ने जैसी जल-सघन फसलों पर टैक्स लगा कर इनका उत्पादन कम किया जाये.
इन उत्पादों का आयात भी किया जा सकता है. इन फसलों का उत्पादन कम करने से पानी की बचत होगी. इस पानी का उपयोग पारंपरिक प्रजातियों से खाद्यान्न का उत्पादन करने के लिए किया जा सकता है. तब हमारी खाद्य सुरक्षा स्थापित हो सकेगी. तूफान, सूखा तथा बाढ़ के समय हमारे किसानों को कुछ उत्पादन मिल जायेगा और वे आत्महत्या नहीं करेंगे.
मॉनसून के पानी का भंडारण जरूरी है. वर्षाजल का भंडारण भूमिगत एक्वीफरों में किया जाये. एक्वीफर में पड़े पानी का वाष्पीकरण नहीं होता है. बाढ़ के नियंत्रण के लिए नदी किनारों पर बने सभी तटबंधों को तोड़ देना चाहिए. बाढ़ के पानी को फैलने देना चाहिए, जिससे एक्वीफर का पुनर्भरण हो.
अच्छा है कि मोदीजी ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूक हैं. परंतु इस मुद्दे पर कोरे भाषण से काम नहीं चलेगा. जरूरत है कि देश की कृषि पर मंडराते संकट से निबटने की रणनीति बनायी जाये. अपना घर जल रहा हो, तो पड़ोसियों के साथ अग्निशमन पॉलिसी पर वार्ता बेमतलब होती है. पहले घर में लगी आग बुझाना चाहिए.