।। अनंत विजय ।।
डिप्टी एक्जिक्यूटिव प्रोडय़ूसर, आइबीएन 7
राहुल गांधी के सामने चुनौती है कि वे अपनी मां और प्रधानमंत्री से ताकत पा रहे कांग्रेस नेताओं की राजनीति के प्रभाव को कम कर अपनी वैकल्पिक राजनीति से कांग्रेस को नयी शक्ल दें. वे ऐसा कर पाते हैं, तो इतिहास पुरुष हो सकते हैं, वरना..
दागी नेताओं को बचानेवाले अध्यादेश के खिलाफ राहुल गांधी के आक्रोश भरे बयान और अंदाज पर पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमिति के एक वरिष्ठ सदस्य से बात हो रही थी. उनका तर्क था कि हमारा देश हमेशा बागी तेवर पसंद करता रहा है.
उनकी एक और दलील थी कि चूंकि हमारे देश में युवा मतदाताओं की संख्या काफी है, इसलिए राहुल के अंदाज और तेवर, दोनों उस वर्ग को पसंद आयेंगे. मैंने उन्हें उत्तर प्रदेश चुनाव में राहुल गांधी के तेवर, परचा फाड़ने, बात–बात में कुर्ते की बांह चढ़ाने की अदा की याद दिलायी. याद तो उत्तर प्रदेश विस चुनाव के नतीजे भी दिलाने पड़े. मेरी नजर में दागी अध्यादेश पर उठाया गया राहुल गांधी का कदम कांग्रेस की राजनीति में फिर से पीढ़ियों के करवट लेने का संकेत है.
संकेत तो यह पार्टी के अंदर के सत्ता संघर्ष का भी है. बीमारी की वजह से सोनिया गांधी की कम होती सक्रियता और फिर एक रणनीति के तहत राहुल को कमान सौंपने की पूरी कवायद के दौरान का संघर्ष राहुल के बयान के माध्यम से सार्वजनिक हुआ.
अध्यादेश जारी करने की सिफारिश का फैसला कांग्रेस कोर ग्रुप में हुआ था. इसमें सोनिया और उनके राजनीतिक सचिव अहमद पटेल के अलावा प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री और गृह मंत्री सदस्य हैं. कांग्रेस पार्टी में अमूमन सभी अहम फैसले यही ग्रुप करता है. कोर ग्रुप के फैसले के बाद कैबिनेट ने उसे पास कर राष्ट्रपति पास भेजा था. तब तक राहुल गांधी खामोश रहे.
राहुल की अध्यादेश से नाराजगी का संकेत दिग्विजय सिंह के बयान से मिला. बाद में युवा सांसद और मंत्री मिलिंद देवड़ा ने इसके खिलाफ ट्वीट कर विरोध की आहट साफ कर दी. अगले ही दिन राहुल गांधी ने नाटकीय अंदाज में दिल्ली के प्रेस क्लब में पहुंच कर अध्यादेश को ‘बकवास’ करार दिया. अब अगर हम इस पूरे प्रकरण की राजनीति का विश्लेषण करें, तो यहां हठ की एक महीन लकीर नजर आती है.
साथ ही आगामी चुनावों से पहले राहुल के एंग्री यंगमैन की छवि को पुख्ता करने की कोशिश. उनके बयान के बाद जिस तरह से कांग्रेस नेताओं ने अध्यादेश के बारे में अपने विचारों से पलटी मारी, उसमें राहुल की बेचैनी को स्थापित करने की ललक दिखाई देती है.
दरअसल, सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी पार्टी में जब–जब नयी पीढ़ी केंद्र में आती है, तब इस तरह के बागी तेवर देखने को मिलते हैं. जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद जब इंदिरा गांधी ने पार्टी को संभाला था, उस वक्त भी पीढ़ियों की यह टकराहट देखी गयी थी. चाहे 1967 का आम चुनाव हो या 1969 में डॉ जाकिर हुसैन के निधन के बाद राष्ट्रपति का चुनाव.
कांग्रेस ने जुलाई, 1969 में बेंगलुरु में पार्टी की एक बैठक बुलायी. उसमें राष्ट्रपति की उम्मीदवारी पर विमर्श होना था. मोरारजी देसाई, के कामराज, एसके पाटिल, अतुल्य घोष और एस निजलिंगप्पा जैसे शक्तिशाली नेताओं ने नीलम संजीव रेड्डी को उम्मीदवार बनाना तय कर रखा था.
बैठक में इंदिरा गांधी ने जबरदस्त आक्रामक रुख अपनाया और कांग्रेस के तमाम दिग्गजों के अरमानों पर पानी फेर दिया था. बाद में राष्ट्रपति चुनाव के वक्त भी कांग्रेस में पुराने नेताओं के सिंडिकेट ने इंदिरा को परास्त करने की कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की जीत सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के नेताओं से समर्थन मांगा था.
इंदिरा ने इसे धर्मनिरपेक्षता से जोड़ दिया और बेहद आक्रामक तरीके से बुजुर्ग नेताओं की साख पर ही सवाल कर उनको संदिग्ध बना दिया. नतीजा, नीलम संजीव रेड्डी हार गये. वीवी गिरी की जीत ने इंदिरा को स्थापित कर दिया. उस वक्त इंदिरा को युवा नेताओं का जोरदार समर्थन था. पार्टी में इंदिरा के ओज के सामने पुराने और वरिष्ठ नेता लगभग निस्तेज हो गये थे.
रजवाड़ों को मिलनेवाले प्रीवी पर्स और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मुद्दे पर भी इंदिरा की आक्रामकता ने उनको जबरदस्त लोकप्रियता दिलवाई थी. पीढ़ियों की इस टकराहट में इंदिरा गांधी विजेता के तौर पर उभरी थीं.
इंदिरा गांधी की दुखद मृत्यु के बाद जब राजीव गांधी ने सत्ता संभाली, तो उन्होंने भी अपने शासनकाल के शुरुआती दिनों में सिस्टम के खिलाफ विद्रोही नेता की छवि को ओढ़े रखा. कांग्रेस के सौ साल पूरे होने के मौके पर 1985 में ‘एक रुपये में से गरीब जनता तक 15 पैसे पहुंचने’ के उनके बयान ने जनता के बीच काफी उम्मीद जगायी थी. राजीव गांधी के कांग्रेस की राजनीति के केंद्र में आने के बाद भी कांग्रेस में पीढ़ियों के बीच टकराहट देखने को मिली.
आरके धवन और माखन लाल फोतेदार जैसे इंदिरा गांधी के विश्वासपात्रों का युग खत्म होने लगा था और अरुण नेहरू, अरुण सिंह, सतीश शर्मा का ग्राफ चढ़ने लगा था. राजनीति से इतर रोमी चोपड़ा और सुमन दुबे जैसे उनके साथी अहम होने लगे थे. दरअसल, इमरजेंसी के पहले जब संजय गांधी ताकतवर हो रहे थे, तो उन्होंने भी इंदिरा के सिपहसालारों के अलग अपनी एक टीम बनायी थी.
राजीव गांधी की हत्या के बाद जब सोनिया गांधी ने राजनीति से किनारा कर लिया, तब भी परिवार में आस्था रखनेवालों ने उम्मीद नहीं छोड़ी. सीताराम केसरी और नरसिंह राव परिवार की आस्था से इतर कांग्रेसी नेताओं को मजबूत नहीं कर सके. लिहाजा केसरी को अपदस्थ कर सोनिया के सिर पर कांग्रेस का ताज रख दिया गया.
अब राहुल गांधी की शक्ल में इतिहास एक बार फिर से अपने को दोहराने के लिए तैयार है. कांग्रेस में पीढ़ियों की टकराहट की एक और जमीन तैयार हो चुकी है. सोनिया गांधी ने राहुल को पार्टी का उपाध्यक्ष बना कर यह बात साफ भी कर दी. उधर, राहुल गांधी की योजना में अहमद पटेल, चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे, एके एंटनी जैसे नेता कहां फिट होंगे यह देखनेवाली बात होगी.
राहुल गांधी कनिष्क सिंह, भंवर जितेंद्र सिंह, मिलिंद देवड़ा के अलावा अपनी पसंद की टीम के साथ अलहदा किस्म की राजनीति करना चाहते हैं. जिस तरह के संकेत वे दे रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि वे कांग्रेस की कार्यपद्धति में बदलाव लाना चाहते हैं. इसमें राहुल के सामने चुनौती लगभग वैसी ही है, जैसी इंदिरा गांधी के सामने थी. कांग्रेस में 65 पार के नेताओं की एक फौज है, जो यथास्थितिवादी है.
उनमें से कुछ को सोनिया गांधी की सरपरस्ती हासिल है, तो कुछ को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की. राहुल के सामने चुनौती है कि वे अपनी मां और प्रधानमंत्री से ताकत पा रहे नेताओं की राजनीति के प्रभाव को कम कर अपनी वैकल्पिक राजनीति से कांग्रेस को नयी शक्ल दें. अगर वे ऐसा कर पाते हैं, तो इतिहास पुरुष हो सकते हैं, वरना इतिहास के बियाबान में गुम होने में देर ही कितनी लगती है!