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मोदी, ममता और तीस्ता नदी का पेच
व्यापार और सामरिक दृष्टि से हम बांग्लादेश की उपेक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि जापान और चीन ने जिस तरह से बांग्लादेश को केंद्र में रख कर बंगाल की खाड़ी के व्यापारिक विकास की महत्वाकांक्षी योजना बनायी है, उससे इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ सकती है! हो सकता है, प्रधानमंत्री मोदी की बांग्लादेश यात्रा में 1972 […]
व्यापार और सामरिक दृष्टि से हम बांग्लादेश की उपेक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि जापान और चीन ने जिस तरह से बांग्लादेश को केंद्र में रख कर बंगाल की खाड़ी के व्यापारिक विकास की महत्वाकांक्षी योजना बनायी है, उससे इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ सकती है!
हो सकता है, प्रधानमंत्री मोदी की बांग्लादेश यात्रा में 1972 से भी बड़ी लकीर खिंच जाये. कोशिश कुछ ऐसी ही हो रही है. ऐसी कोशिश में ढाका स्थित भारतीय उच्चायोग पूरी ताकत से लगा हुआ है, ताकि लोग देखें तो 1972 में इंदिरा गांधी के स्वागत को भूल जायें. इस मेगा शो में चार चांद लगाने के वास्ते बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी साथ में होंगी. चिटगांव से सिलहट तक लोग ‘ओई पार बांग्ला’ को ‘बंगाल’ कहना ही पसंद करते हैं. यह ठीक भी है. जब पूर्वी पाकिस्तान का वजूद नहीं है, तो पश्चिम बंगाल कहना, जमता नहीं. बहरहाल! ममता बनर्जी छह जून के ढाका शो की स्टार होंगी, या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, यह भी दो दिन बाद देखनेवाला विषय होगा. पिछले महीने मोदी जी, हाथी-घोड़ा-पालकी के साथ जब चीन दौरे पर थे, तब दो सूबे के मुख्यमंत्री उसमें शामिल थे. लेकिन उनकी मौजूदगी मानीखेज नहीं बनी, मगर ममता का प्रधानमंत्री के साथ ढाका जाने का मतलब है. ममता-मोदी को लेकर जो बात निकलेगी, शायद दूर तलक जायेगी. राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस के बारह सांसद, लोकसभा के चौंतीस सदस्यों से भी अधिक वजनदार लगते हैं.
यह ममता बनर्जी ही थीं, जिन्होंने सितंबर 2011 में मनमोहन सिंह के साथ ढाका जाने से मना कर दिया था. और इस वजह से तिस्ता समझौता खटाई में पड़ गया था. पर क्या इस बार ममता बनर्जी के जाने से तिस्ता पर हस्ताक्षर हो जायेगा? भारतीय विदेश मंत्रलय ने इस संभावना से इनकार किया है. तिस्ता पर क्या करना है, इसकी पटकथा अवश्य लिखी जायेगी, ऐसी उम्मीद दोनों तरफ से है. बांग्लादेश-भारत संबंध को पटरी पर बनाये रखना है, तो ममता बनर्जी से विमर्श जरूरी है, यह संदेश बार-बार गया है. नवंबर 2000 तक ज्योति बसु बंगाल के मुख्यमंत्री रहे, उनके बाद ग्यारह साल तक बुद्धदेव भट्टाचार्य इस पद की जिम्मेवारी संभालते रहे, लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि बांग्लादेश से किसी समझौते में इन नेताओं ने केंद्र पर हावी होने की चेष्टा की. अपार बहुमत के साथ आयी मोदी सरकार को भी ममता बनर्जी ने हड़का रखा है कि उनसे पूछे बगैर आप समझौते पर हस्ताक्षर नहीं कर सकते. विदेश मंत्री बनने के बाद सुषमा स्वराज जब जून 2014 में बांग्लादेश गयीं, तब भी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से फोन पर बात की. उन्हें भू-सीमा समझौता (एलबीए), अवैध आव्रजन, और तीस्ता जल समझौते की रूपरेखा पर विमर्श करना था. उस समय लगा था कि प्रधानमंत्री मोदी भूटान के बाद, बांग्लादेश जायेंगे. साल भर बाद मोदी बांग्लादेश क्यों जा रहे हैं? इसका उत्तर 7 मई, 2015 को भू-सीमा समझौता संसद में पास हो जाने के बाद स्वत: मिल जाता है. 68 साल पुराने विवाद के समाधान के साथ मोदी बांग्लादेश जा रहे हैं, इसे भारतीय कूटनीति की ‘सक्सेस स्टोरी’ ही कहेंगे. इसकी इबारत 1974 में मुजीब-इंदिरा ने लिखी थी. लेकिन उस पर संसद की मुहर नहीं लग पायी थी.
भारत-बांग्लादेश के बीच 3,909 किलोमीटर लंबी सीमा है. बांग्लादेश से सबसे बड़ी समस्या घुसपैठ और आतंकवाद की रही है. सितंबर 2011 में मनमोहन सिंह की ढाका यात्र की उपलब्धि यही थी कि चालीस साल पुराना ‘तीन बीघा गलियारा’ का मामला सुलझा लिया गया था. तीन बीघा गलियारे में बांग्लादेशी नागरिकों की चौबीस घंटे आवाजाही को भारत ने मंजूरी दे दी थी. बांग्लादेश के 111 ऐसे इलाके, जिन्हें इन्क्लेव (छीटमहल) कहते हैं, में भारतीय नागरिकों के आने-जाने की छूट पर समझौता हुआ था. बदले में भारतीय क्षेत्र के 51 बांग्लादेशी इन्क्लेव से उस पार के नागरिकों को आने की सुविधा दी गयी. यह अदला-बदली संसद में तब विपक्ष में बैठी भाजपा को स्वीकार नहीं थी. तब असम गण परिषद भी तत्कालीन सरकार का विरोध कर रही थी. निजाम बदला, तो वही समझौता संसद में भाजपा सरकार को रास आ गया. मोदी जी बांग्लादेश जाकर इसका श्रेय ले सकते हैं. लेकिन भू सीमा समझौता (एलबीए) की असल ‘सक्सेस स्टोरी’ कांग्रेस शासन में ही लिखी गयी थी. यही इस समझौते का सच है.
भाजपा और असम गण परिषद् की आपत्ति घुसपैठ रोकनेवाले प्रावधानों को लेकर रही थी. उसे तब भी संसद में सुलझाया जा सकता था. बांग्लादेश, घुसपैठ रोकने के लिए ‘वर्क परमिट’ (काम की अनुमति) का प्रस्ताव दे चुका था. रोज सीमा पार जाकर कमाने, फिर घर लौटनेवालों के लिए ‘वर्क परमिट‘ सुगम उपाय है, और सीमा पर तैनात सुरक्षा एजेंसियों के लिए घुसपैठ रोकने में यह सिस्टम कारगर सिद्ध हो सकती है. ऐसी व्यवस्था इजराइल-फिलिस्तीन के नागरिकों के बीच है. बांग्लादेशी घुसपैठ को रोकना भाजपा का चुनावी एजेंडा था. ‘वर्क परमिट’ सफल होता है, तो नेपाल और भूटान भी अपने नागरिकों के लिए सीमा पार काम करने की अनुमति का प्रस्ताव दे सकते हैं.
सबके बावजूद, भारत-बांग्लादेश संबंधों के बीच तिस्ता एक रोड़े के रूप में खड़ा है. बांग्लादेश ‘एकै सधै, सब साधै’ की श्रेणी में तिस्ता के सवाल को रख चुका है. मई 2012 में बांग्लादेश की तत्कालीन विदेशमंत्री दिपु मोनी भारत आयीं, और उन्होंने चेतावनी के स्वर में कहा कि तिस्ता समझौते का कोई रास्ता नहीं निकला, तो दोनों देशों के संबंध खराब हो सकते हैं. भारत से निकली 54 नदियां बांग्लादेश में बहती हैं. 1972 में भारत-बांग्लादेश के बीच साझा जल आयोग (ज्वाइंट रिवर कमीशन) बना. 1996 में दोनों देशों के बीच तीस वर्षो के लिए समग्र जल संधि हुई. सिक्किम की लाइफलाइन कही जानेवाली तीस्ता नदी बंगाल के जिस 45 किमी के भूभाग को छूती हुई बांग्लादेश में प्रवेश करती है, उन क्षेत्रों की भूमि बहुत उपजाऊ है. 1983 में अनौपचारिक रूप से यह व्यवस्था की गयी कि भारत तीस्ता जल का 39 प्रतिशत, और बांग्लादेश बाकी जल का 36 प्रतिशत इस्तेमाल करेगा. लेकिन बाद के दिनों में बांग्लादेश, तीस्ता से और अधिक, 4,500 क्यूसेक जल के उपयोग की मांग करने लगा.
व्यापार और सामरिक दृष्टि से हम बांग्लादेश की उपेक्षा नहीं कर सकते. 2013-14 में बांग्लादेश-भारत के बीच 6.6 अरब डॉलर का व्यापार हुआ, जिसमें भारत का निर्यात 92 प्रतिशत के आसपास है. 2013-14 में भारत 6.1 अरब डॉलर की वस्तुएं बांग्लादेश निर्यात कर चुका है. लेकिन बांग्लादेश क्या भारत की व्यापारिक परिधि से बाहर निकलना चाहता है? यह प्रश्न अब इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि जापान और चीन ने जिस तरह से बांग्लादेश को केंद्र में रख कर बंगाल की खाड़ी के व्यापारिक विकास की महत्वाकांक्षी योजना बनायी है, उससे इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ सकती है!
पुष्परंजन
दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज
pushpr1@rediffmail.com
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