तब पांच फीसदी की आर्थिक वृद्धि सपने जैसा था, लेकिन आज यह साकार हो चला है. जाहिर है, सूखे की मार ङोलनेवाली जनता को सरकार से राहत की उम्मीद पहले से ज्यादा है और होनी भी चाहिए. सूखे का अर्थ यही नहीं होता कि अनाज कम उपजेगा और खेती पर आश्रित लोगों के लिए रोजमर्रा का जीवन-यापन बढ़ती हुई महंगाई के बीच कहीं ज्यादा कठिन हो जायेगा, बल्कि सूखे का एक अर्थ यह भी होता है कि शहरों में कायम बाजारों की चमक फीकी रहेगी. जिस साल किसान के बखार में अनाज ज्यादा होता है, होली-दीवाली के कपड़े कुछ ज्यादा सिलते हैं, गांव और शहर के बीच गाड़ियों की आवाजाहियां ज्यादा होती हैं, सोना-चांदी कुछ ज्यादा बिकते हैं. ऐसे में सूखे के समय राहत देकर सरकार एक तरह से अर्थव्यवस्था को ही राहत प्रदान करेगी. गरीबी के आकलन पर केंद्रित रंगराजन समिति की रिपोर्ट के तथ्य इशारा करते हैं कि जिन राज्यों में खेतीबाड़ी का काम मुख्यत: मॉनसून पर निर्भर है, वहां के ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों की संख्या राष्ट्रीय औसत (30.9}) से ज्यादा है.
मसलन, छत्तीसगढ़ (49}), ओड़िशा (47}), मध्य प्रदेश (45.2}) और झारखंड (45.9}) के ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले लोगों की प्रतिशत संख्या का अंतर राष्ट्रीय औसत की तुलना में 10 अंकों से भी ज्यादा है. इन राज्यों के ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी की दर भी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है. जाहिर है, सूखे की स्थिति में खेती के लिए मॉनसून पर निर्भर राज्यों की आबादी की जीवनदशा पर सर्वाधिक चोट पहुंचेगी. इसलिए जरूरी है कि समय रहते पहले चेता जाये और ऐसी तैयारी की जाये कि देश की गरीब आबादी सूखे के साल में कर्ज एवं अवसाद के दुष्चक्र में न पड़े.