हम पश्चिम का नकल तो करते हैं, लेकिन एकतरफा नकल करते हैं. हम उनके जैसा निर्माण कार्य करना तो चाहते हैं, लेकिन उनके जैसे सुरक्षा तंत्र को विकसित करना नहीं चाहते. वैज्ञानिकों ने इस बात को बता दिया है कि हिमालय पर्वत में किस तरह कि कितनी ऊर्जा है, जो आगे चल कर मुक्त होगी. इसलिए हमें इस संबंध में बहुत संभल कर आगे कदम बढ़ाना होगा.
नेपाल में आये भूकंप ने भारी तबाही मचायी है. दो हजार से ज्यादा लोगों की जान चली गयी, बहुत सी इमारतें तबाह व बरबाद हो गयी हैं. हालांकि, भूकंप का केंद्र काठमांडो से 80 किलोमीटर दूर लामजंग में था, लेकिन चूंकि यह भूकंप रिक्टर पैमाने पर 7.9 का था, इसलिए इसका यह भयावह रूप सामने आया. हालांकि ऐसा नहीं है कि भूकंप की यह सबसे बड़ी घटना है, देश-दुनिया में भूकंप लगातार आते रहे हैं और कई बार जान व माल का व्यापक नुकसान हो चुका है.
साल 1991 में उत्तराखंड के गढ़वाल में भूकंप आया था, जिसमें एक हजार से ज्यादा लोगों ने अपनी जिंदगियां गंवायी थीं. उस वक्त हमारी सरकार ने गुमराह करने की कोशिश की थी कि गढ़वाल का भूकंप केंद्र अलमोड़ा है, लेकिन वैज्ञानिकों ने जांच में पाया कि यह ‘अलमोड़ा’ नहीं, बल्कि ‘अगोड़ा’ था. अगोड़ा मनेरी भाली बांध क्षेत्र में पड़ता है और यह क्षेत्र ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ क्षेत्र में आता है.
समझनेवाली सबसे पहली बात तो यह है कि हिमालय पर्वत दो जमीनों के टकराव से बना है, जिसे हम प्लेट कहते हैं. यानी दो प्लेटों के टकराव से हिमालय ने पहाड़ का रूप लिया है. भू-वैज्ञानिक अकसर हमें इस बात की जानकारी देते रहे हैं, क्योंकि यह टर्म भी भूगर्भशास्त्रियों का ही है. धरती की प्लेट जब टकराती हैं, तो वे ऊपर को उठती हैं. दुनिया में जितने भी बड़े पहाड़ हैं, वे सभी दो जमीनों के टकराव के बाद ही बने हैं. ध्यान रहे, हिमालय पर्वत अब भी ऊपर की ओर उठ रहा है, क्योंकि उसके भीतर का टकराव बदस्तूर जारी है. बीच-बीच में इस टकराव से जब ज्यादा ऊर्जा पैदा हो जाती है, तो भूकंप या भूस्खलन के रूप में बाहर आती रहती है. अभी हिमालय से सटे नेपाल में भूकंप आया है, जिसके झटके भारत के कई हिस्सों में भी महसूस किये गये हैं. अब आगे चल कर और कहां-कहां भूकंप आयेगा, इसकी अभी कल्पना नहीं की जा सकती है और न ही इसकी कोई भविष्यवाणी की जा सकती है.
जमीनों के टकराव की जगह को ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ कहा जाता है. इस आधार पर पूरा का पूरा हिमालय क्षेत्र ही ‘अर्थक्वैक प्रोन’ क्षेत्र है. इस बारे में भू-वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने बार-बार कहा है कि ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ पर किसी तरह का कोई निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए. अर्थक्वैक फॉल्ट रीजन में मनुष्य की दखलअंदाजी का मतलब बहुत बड़े और भयानक खतरों की ओर बढ़ना है. इस बारे में दो बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं. एक तो भूमि की अपनी प्राकृतिक ऊर्जा है, जो भूकंप की स्थिति को बनायेगी, और वहीं दूसरी ओर अगर ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ पर आप कोई निर्माण कार्य जैसा बाहरी दबाव डालेंगे, तो भूगर्भ में बन रही ऊर्जा को बाहर आने की ही दावत देंगे. मसलन, गढ़वाल में 1991 में आये भूकंप का कारण वह बांध ही था. एक तो मनेरी भाली बांध का वह क्षेत्र ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ क्षेत्र है, दूसरे हमने वहां बांध बना कर पानी को रोक दिया. वहां पानी के भार ने एक प्रकार का बाहरी दबाव पैदा किया, जिसका परिणाम भूकंप के रूप में हमारे सामने आया. इसलिए भू-वैज्ञानिक बार-बार सरकारों से कहते रहते हैं कि ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ क्षेत्र में बांध न बनाये जायें या कोई और निर्माण कार्य न किया जाये. टिहरी बांध भी ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ पर है, जिसके लिए बार-बार वैज्ञानिकों-विशेषज्ञों ने चेताया है. ऐसे में सरकारों को यह देखना चाहिए कि जहां-जहां भी बांध बन रहे हैं, वहां कहीं ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ तो नहीं है.
नेपाल में भूकंप से मची तबाही के संदर्भ में दो बातों पर गौर करना जरूरी है. पहली यह कि क्या हिमालय पर्वत के भीतर बन रही उसकी अपनी ऊर्जा के मुक्त होने से नेपाल में भूकंप आया है या फिर ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ क्षेत्रों में किये गये निर्माण कार्य से भूकंप आया है? इतनी आसानी से हम इसका जवाब नहीं बता सकते, क्योंकि यह भू-अध्ययन का विषय हैं. दूसरी बात यह है कि अगर हम ऐसे ही अपना काम करते रहे, तो किसी भी हाल में हम भूकंप की तबाही से नहीं बच सकते. इससे बचने का उपाय यही है कि हमें ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ क्षेत्रों में मकान नहीं बनाने चाहिए, या अगर बनायें तो वह पूरी तरह भूकंपरोधी हों.
कैलिफोर्निया में हमेशा भूकंप आते रहते हैं, लेकिन वहां का एक ‘बिल्डिंग कोड’ है, जिससे कि वहां के मकान भूकंप को सहन कर लेते हैं और जान व माल को नुकसान की बड़ी घटना नहीं हो पाती. इसलिए हमें यह कोशिश करनी होगी कि ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ क्षेत्रों में वैज्ञानिकों के कहे मुताबिक बिल्डिंग कोड तैयार करें. बहुत ही साधारणा सी बात है कि अगर एक मंजिल की जगह दस मंजिल इमारत खड़ी करेंगे, तो हमारा नुकसान भी एक की जगह दस गुना होगा. इस दस गुना बड़े नुकसान से बचने के लिए बिल्डिंग कोड बहुत जरूरी है. सरकारों को चाहिए कि देश में जहां-जहां भी ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ क्षेत्र हैं, वहां-वहां की जमीनों की जांच-पड़ताल कर उसी आधार पर बिल्डिंग कोड तैयार किये जायें.
हमारी यानी हमारी सरकारों की दिक्कत यह है कि एक तरफ वह आधुनिकीकरण करना चाहती है, जिसके तहत बड़े-बड़े, ऊंचे-ऊंचे मकान बना रही है, दूसरी ओर भूकंप के खतरों को नजरअंदाज करती है. आधुनिकता के साथ जो सुरक्षा का भाव है, उसे सरकारें यह कह कर नजरअंदाज कर जाती हैं कि हम इतनी व्यवस्था नहीं कर सकते, क्योंकि हम एक गरीब देश हैं. कितनी अजीब बात है यह. ऐसे में भूकंप से बचना कहां तक मुमकिन है? जाहिर है, दोनों एक साथ नहीं हो सकतीं. आधुनिकीकरण लाओ तो उसके साथ सुरक्षा भी लाना पड़ेगा. परमाणु हथियार लाओ, लेकिन उसके साथ ही उससे बचने के उपाय भी विकसित करो. हम सिर्फ एक ही को करना चाहते हैं, जो आगे चल कर सिवाय नुकसान के, कोई फायदा नहीं पहुंचा सकती हैं. अगर जीएम लाओगे, तो बायोसेफ्टी भी लाना होगा. इसी तरह से अगर आप बड़े-बड़े और ऊंचे-ऊंचे मकान बनाना चाहते हैं, तो इसके लिए उस क्षेत्र के ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ को देखते हुए ‘बिल्डिंग कोड’ भी बनाना पड़ेगा.
हमारी दूसरी दिक्कत यह है कि हम सिर्फ अंधानुकरण करना जानते हैं. हम पश्चिम का नकल तो करते हैं, लेकिन एकतरफा नकल करते हैं. हम उनके जैसा निर्माण कार्य करना तो चाहते हैं, लेकिन उनके जैसे सुरक्षा तंत्र को विकसित करना नहीं चाहते. वैज्ञानिकों ने इस बात को बता दिया है कि हिमालय पर्वत में किस तरह कि कितनी ऊर्जा है, जो आगे चल कर मुक्त होगी, जिससे भूकंप और भूस्खलन की संभावना रहेगी. इसलिए हमें इस संबंध में बहुत संभल कर आगे कदम बढ़ाना होगा.
हिमालयी क्षेत्रों में ऐसे निर्माण कार्य नहीं होने चाहिए, जैसा कि देश के दूसरे हिस्सों में हो रहा है. लेकिन हमारे पास पर्यटन का बहाना मिल जाता है कि इससे राजस्व आयेगा और हम बिना सोचे-समझे निर्माण कार्य में जुट जाते हैं. मैं स्पष्ट शब्दों में कहूं, तो इस तरह के भूकंप हमें जगाने के लिए आते हैं कि वक्त रहते हमें अब ‘अर्थक्वैक फॉल्ट’ के रहस्यों की अनदेखी बंद कर देनी चाहिए. जाहिर तौर पर शहरीकरण से दो तरह की बरबादी होती ही है. एक तो हमें सैकड़ों-हजारों जानों से हाथ धोना पड़ता है, और साथ ही शहरीकरण में इस्तेमाल हुए संसाधनों का भी अच्छा-खासा नुकसान होता है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
वंदना शिवा
प्रसिद्ध पर्यावरणविद्
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