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ओबामा की मेहमाननवाजी से लाभ नहीं

पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि पहले इराक, फिर लीबिया और सीरिया को तबाह कर तथा अफगानिस्तान में अमेरिका के अनगिनत मूर्खताभरे सामरिक फैसलों की वजह से ही तालिबान रक्तबीज इतने खूंखार बन सके हैं. गणतंत्र दिवस के अवसर पर विदेशी मेहमान की आवभगत की परंपरा पुरानी है. […]

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि पहले इराक, फिर लीबिया और सीरिया को तबाह कर तथा अफगानिस्तान में अमेरिका के अनगिनत मूर्खताभरे सामरिक फैसलों की वजह से ही तालिबान रक्तबीज इतने खूंखार बन सके हैं.
गणतंत्र दिवस के अवसर पर विदेशी मेहमान की आवभगत की परंपरा पुरानी है. इस प्रथा की राजनयिक उपयोगिता कम नहीं. खास मेहमान को न्यौता देकर दुनिया को यह संकेत दिया जाता रहा है कि इस वक्त कौन हमारा दोस्त है, जो हमारे बैरियों -प्रकट तथा अभी पर्दे के पीछे छुपे-के साथ मुठभेड़ में हमारा साथ देनेवाला समझा जा रहा है.
कभी किसी महाशक्ति का राष्ट्राध्यक्ष तो कभी नन्हे, पर सामरिक दृष्टि से संवेदनशील महत्वपूर्ण पड़ोसी राज्य के सदर को आमंत्रित किया जाता है. ऐसा भी हुआ है कि ऐन वक्त पर तय मेहमान ने किसी मजबूरी का इजहार कर भारत सरकार के लिए अप्रत्याशित समस्या उत्पन्न कर दी है.
तब गाढ़े वक्त के आजमाये मित्र संकट मोचक सिद्ध हुए हैं. ऐसा तभी होता है, जब बदले अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में या अचानक गहराये आंतरिक संकट के कारण वह अपना वचन निभाने में असमर्थ हो गये हों. बहरहाल इस मौके पर इस साल ओबामा के आगमन की चर्चा काफी समय से राजनयिक विश्लेषकों को व्यस्त रखता रहा है.
इसे एक ऐतिहासिक और असाधारण घटना क्यों माना जा रहा है? इसका कारण ढूंढ़ने के लिए बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं. कुछ ही समय पहले तक नरेंद्र मोदी को अमेरिकी सरकार वीसा ठुकराती रही थी. उन पर 2002 में गोधरा कांड और उसके बाद भड़के सांप्रदायिक दंगों को रोकने में जानबूझ कर लापरवाही के लांछन लगते रहे हैं.
लोकसभा चुनावों में अपनी नाटकीय विजय के पहले ही मोदी ने पश्चिमी यूरोप के देशों तथा अमेरिका को अपनी नीति पर पुनर्विचार के लिए मजबूर कर दिया था. सार-संक्षेप यह है कि मोदी की विदेश यात्रओं ने राजनयिक दिग्विजयी अभियान की शैली अपनायी है और उनका अमेरिकी दौरा इसका ‘क्लाइमैक्स’ कहा जा सकता है. मेडिसन सक्वॉयर में मोदी के स्वागत में प्रवासी भारतीयों के साथ दर्जनों अमेरिकी सीनेटर, कांग्रेस के सदस्य सांसद भी पलक पांवड़े बिछाये खड़े दिखे.
इसी करिश्मे की नुमाइश का असर था कि ओबामा ने राजनयिक मेजबानी की लीक से हट कर बहुत कुछ किया. तभी से यह कहा जाता रहा है कि भारत और अमेरिका के संबंध मोदी के कार्यकाल में अधिक घनिष्ठ होंगे और इन दो देशों की सामरिक साङोदारी भी मजबूत होगी. मोदी के आलोचकों का मानना है कि पूंजीपतियों के हिमायती मोदी और भाजपा और कर भी क्या सकते हैं? वह रूस तथा पुतिन की अनदेखी कर रहे हैं और अमेरिकी साजिश का शिकार अनायास हो रहे हैं.
इसी वजह से वह फिलिस्तीनियों से फासला बढ़ा रहे हैं. ईरान जैसे पारंपरिक मित्र को खिन्न कर रहे हैं, चीन की मोर्चाबंदी के नाम पर श्रीलंका, नेपाल तथा भूटान में अपने हितों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. इसके अलावा अफगानिस्तान के बर्फीले दलदल में धंसने को हैं. ओबामा की लोकप्रियता अपने देश में निरंतर घटती जा रही है. सीनेट में बहुमत तो वह गंवा ही चुके हैं, अत: उनकी खास मेहमान नवाजी भारत के लिए लाभदायक नहीं हो सकती.
अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों में सुधार मोदी के साथ शुरू नहीं हुआ. आर्थिक सुधारों के सूत्रपात से ही गुट निरपेक्षता जनित मनोमालिन्य समाप्त हो गया था. यह दिशा-परिवर्तन नरसिंह राव के कार्यकाल में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई में संपन्न हुआ. उनकी उत्तराधिकारी एनडीए-1 ने इसे जारी रखा. जब कांग्रेस यूपीए-1 और यूपीए-2 के मुखौटे पहन तख्तनशीं रही, हमारी आर्थिक तथा सामरिक नीतियां अमेरिकोन्मुखी ही रहीं. मनमोहन ने तो अपनी सरकार को ही परमाणविक समझौते की खातिर दावं पर लगा दिया! बुश की झप्पी ही उनके भाव-शून्य चेहरे पर मुस्कान की झलक दिखला सकती थी. दूसरे शब्दों में, मोदी या भाजपा पर यह आरोप गलत है कि पूंजीवादी रूझान के कारण ही ओबामा और अमेरिका को इतनी तवज्जो दी जा रही है.
यहां यह भी रेखांकित करना परमावश्यक है कि पुतिन के राज में रूस 1960 या 1970-80 के दशक का साम्यवादी सोवियत संघ नहीं है. न ही भारत यह आशा कर सकता है कि उसे आज का यूरेशियाई रूस अपनी सामरिक प्राथमिकता में वही वरीयता देगा, जो माओ युग में महान सांस्कृतिक क्रांति के दौर में देता था, जिसकी परिणति 1971 के बांग्ला देश मुक्ति संग्राम के वक्त देखने को मिली. इतिहास के ये भूले-बिसरे पन्ने पलटे बिना यह लेखा-जोखा बेमतलब है कि इस घड़ी अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य कितना और किस तरह बदला है और उसके संदर्भ में ओबामा की भारत यात्र का मूल्यांकन कैसे किया जाना चाहिए?
जिन दो बातों का उल्लेख जरूरी है, वह तेल कीमतों में निरंतर गिरावट है और फ्रांस में कट्टरपंथी दहशतगर्दी की घटना है.
पहली बात भले ही निरंतर सुर्खियों में नहीं रहती, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम हमारी अर्थव्यवस्था पर होंगे. अमेरिका इस वक्त बरसों से चली आ रही मंदी की चपेट से उबर रहा है.
वहां इस सुधार का अर्थ है भारत में पूंजी निवेश करनेवालों के उत्साह में कमी. भारतीय निर्यात क्रमश: मंहगे होंगे और भारत के साथ व्यापार बढ़ाने के अवसर सुझानेवाले अमेरिकी उद्यमी पहले जितना मुखर नहीं होंगे. मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री थे, तब अमेरिकी प्रशासन भारत को यह समझाने में तकरीबन सफल हो गया था कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी के बाद भारत वहां अपनी मौजूदगी बढ़ाने का नायाब मौका हासिल कर सकता है.
खुद वह अच्छे और बुरे तालिबानों में फर्क कर इसलामी दहशतगर्दी के विरुद्ध साङो की मोर्चाबंदी से कतराते रहे हैं. फ्रांस के खूनखराबे के पहले भी पेशावर, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी की वारदातें इस जटिल चुनौती को उजागर कर चुकी हैं. धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र के लिए, वह चाहे भारत हो या फ्रांस, यह विकट समस्या है कि बिना सांप्रदायिक द्वेष को फैलाये वे इस कट्टरपंथी आत्मघातक आक्रामक विस्तारवादी वहाबी इसलाम के निर्यात से जन्मी दहशतगर्दी का मुकाबला कैसे करें?
आज ओबामा पर यह आरोप भी लगाया जा रहा है कि उनकी कमजोरी ने ही इन दहशतगर्दो को ताकतवार बनाया है. इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि पहले इराक, फिर लीबिया और सीरिया को तबाह कर तथा अफगानिस्तान में अनगिनत मूर्खताभरे सामरिक फैसलों की वजह से ही तालिबान रक्तबीज इतने खूंखार बन सके हैं. परंतु इससे यह नतीजा निकालना गलत होगा कि भारत सरकार को अमेरिकी राष्ट्रपति को अस्पृश्य समझना चाहिए और उनके सत्कार में कोई कमी करनी चाहिए.
तेल की धार और कट्टरपंथी ‘जेहादी’ दहशतगर्दी के पाशविक वार इन दोनों पर सतर्क नजर रखते हुए हमें राजकाज चलाना और राजनयिक शिष्टाचार का निर्वाह करना होगा.

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