कहा जाता है कि किसी से अपेक्षा से नहीं रखनी चाहिए. अपेक्षाएं पूरी नहीं होने पर दुख होता है. वहीं कुछ विद्वान इसके उलट राय रखते हैं. वे कहते हैं कि हमें कठिन घड़ी में भी उम्मीद बनाये रखनी चाहिए.
क्योंकि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है. इन दो विरोधासी खयालों के बीच इनसान हमेशा भ्रमित रहता है. अगर आप किसी से अपेक्षा नहीं रखेंगे, तो सामनेवाले इनसान को लेकर संशकित रहेंगे कि कहीं वह हमें धोखा न दे दे. और, सशंकित मन से उम्मीद तो रखी नहीं जा सकती. वाकई, बड़ी अजीब दुविधा और उधेड़बुन है.
मुङो लगता है इस स्थिति से लगभग सभी लोग दोचार होते होंगे. अच्छा, एक बात और है. यदि हम किसी से अच्छा व्यवहार करते हैं तो अपने आप उम्मीद हो जाती है कि सामनेवाला लाठी लेकर तो नहीं दौड़ेगा. पुरखे भी कह गये हैं कि कर भला, तो हो भला. लेकिन इसकी भी उलटी नजीर देखने को मिलती है. कई बार आप सामनेवाले से विनम्र हो कर बात करते हैं, तो सामनेवाला आपको दब्बू या डरपोक समझ लेता है. पिछले दिनों, जम्मू-कश्मीर में आयी भीषण बाढ़ के वक्त जब सेना बाढ़ से बुरी तरह बेजार हो चुके कश्मीरियों को बचाने के लिए हाथ बढ़ा रही थी, तो कुछ लोग उस पर पत्थर बरसा रहे थे. यह माना जा सकता है कि सेना और पुलिस-प्रशासन से वहां के लोगों की नाराजगी हो सकती है.
लेकिन जब जान पर बन आयी हो, तो बचानेवाले पर पत्थर बरसाने का क्या तुक!
एक चीज और गौर करने लायक है कि हम भारतीय अव्वल दज्रे के नाशुक्रे हैं. जिन लोगों की मेहनत से समाज चल रहा है, समाज का पेट भर रहा है, उनका कोई एहसान हम नहीं मानते. मजदूरों-किसानों को हम लोग हेय दृष्टि से देखते हैं. भारत में श्रम की बुनियाद दलित समुदाय पर टिकी है, लेकिन उसके साथ हजारों साल से छुआछूत होता चला आ रहा है. गांधीजी ने इसके खिलाफ मुहिम चलायी थी. पिछले दिनों अखबारों में आयी एक खबर ने निराशा और बढ़ा दी. खबर के मुताबिक, आज भी भारत में 27 फीसदी लोग अस्पृश्यता या छुआछूत मानते हैं. यानी हर चार में से एक व्यक्ति छुआछूत और जातिवाद को मानता है. देश के 74 प्रतिशत साक्षर भारतीय किस तरह का समाज और देश बना रहे हैं? हम पढ़ कर समझदार बन रहे हैं या फिर कूढ़मग्ज होते जा रहे हैं. चेतना का इतना निम्न स्तर हो चुका है? लेकिन भारत के दूसरे छोर पर बसे अमेरिका के फग्यरुसन शहर में अश्वेत युवक माइक ब्राउन की हत्या के बाद जिस तरह से आंदोलन हुआ यह काबिले-तारीफ है. मैं दंगों की बात नहीं कर रहा. मैं लंदन में अमेरिकी दूतावास के बाहर हजारों प्रदर्शनकारियों की बात कह रहा हूं जो श्वेत होकर भी अश्वेतों के लिए हक की मांग कर रहे थे. खैर, दुनिया तो अजीबो-गरीब है. तरह-तरह के लोग और नजीरें मिलती हैं.
अजीत पांडेय
प्रभात खबर, रांची
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