Dadabhai Naoroji : ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया के नाम से लोकप्रिय दादाभाई नौरोजी का योगदान केवल स्वतंत्रता आंदोलन तक सीमित नहीं रहा. उन्होंने समाज सुधारक, शिक्षाविद, राजनेता, आर्थिक चिंतक, पत्रकार, संगठनकर्ता और ब्रिटिश भारत के अनौपचारिक राजदूत के रूप में भी उल्लेखनीय भूमिका निभायी. आज से ठीक दो सौ वर्ष पहले एक साधारण पारसी परिवार में जन्मे नौरोजी भारतीय इतिहास में ऐसे व्यक्तित्व के रूप में उभरे, जिन्हें अनेक क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले प्रथम भारतीय होने का सम्मान मिला. नौरोजी देश के ऐसे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने 1867-68 में भारत की प्रति व्यक्ति आय की गणना कर इसे मात्र बीस रुपये प्रतिवर्ष बताया था. वे धन की निकासी सिद्धांत के प्रथम प्रतिपादक के रूप में भी जाने जाते हैं. ब्रिटिश संसद में चुने जाने वाले पहले भारतीय भी थे वे. वर्ष 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने पहली बार सार्वजनिक रूप से ‘स्वशासन’ की मांग रखी थी.
एक शिक्षक के रूप में उनके जीवन का आरंभ तब हुआ, जब बंबई (अब मुंबई) के एल्फिंस्टन कॉलेज में उन्होंने गणित पढ़ाना शुरू किया. वर्ष 1851 में उन्होंने खरशेदजी नुसरवानजी कामा के साथ ‘रास्त गोफ्तार’ नामक आंग्ल-गुजराती साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जो सामाजिक सुधारों और राष्ट्रीय जागरण का माध्यम बनी. इसी वर्ष ‘रहनुमाई मजदायस्नान’ सभा की स्थापना के जरिये उन्होंने पारसी समाज की कुरीतियों को दूर करने का भी प्रयास किया. बाद में उन्होंने शिक्षण छोड़ व्यवसाय जगत में कदम रखा. वर्ष 1855 में इंग्लैंड पहुंचकर वे पहली भारतीय व्यावसायिक फार्मा कंपनी ‘कामा एंड कंपनी’ से जुड़ गये. यहां काम करते हुए उन्हें लगा कि भारत की वास्तविक उन्नति केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता से संभव नहीं, इसके लिए राजनीतिक चेतना और सामाजिक सुधार भी आवश्यक है.
उन्होंने महसूस किया कि ब्रिटिश जनता को भारत में हो रहे शोषण और अन्याय की सच्चाई से अवगत कराना अत्यंत आवश्यक है. उनका विश्वास था कि यदि ब्रिटिश जनमानस को भारत की वास्तविक परिस्थितियों की जानकारी हो जायेगी, तो वे औपनिवेशिक नीतियों के विरुद्ध आवाज उठायेंगे. इसी उद्देश्य से उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक संगठनों की स्थापना और संचालन में सक्रिय भागीदारी की. इसी क्रम में 1865 में ‘लंदन इंडिया सोसाइटी’ की स्थापना हुई, जो विदेश में गठित पहला भारतीय संगठन था. इसका उद्देश्य भारतीय और अंग्रेजों को सामाजिक एवं बौद्धिक संवाद के जरिये जोड़ना था. एक दिसंबर,1866 को यही संस्था ‘ईस्ट इंडिया एसोसिएशन’ में परिवर्तित हो गयी, जिसने भारत की राजनीतिक मांगों को व्यवस्थित रूप देने और उन्हें ब्रिटिश सरकार तक पहुंचाने का कार्य किया.
नौरोजी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के ऐसे पथ प्रदर्शक थे, जिन्होंने आने वाली पीढ़ियों को संगठन, राजनीति और आर्थिक चेतना की राह दिखाई. इतना ही नहीं, उन्होंने औपनिवेशिक शासन की नीतियों का गहन अध्ययन कर भारत की गरीबी और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शोषणकारी चरित्र को उजागर किया. विशेष रूप से उनके द्वारा प्रतिपादित ‘धन निकासी सिद्धांत’ भारतीय राष्ट्रवाद के आर्थिक आधार का केंद्रीय स्तंभ बन गया. दरअसल, 1765 की इलाहाबाद की संधि के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में दीवानी का अधिकार मिला, तभी से भारत में संगठित आर्थिक लूट की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी. नौरोजी उन पहले भारतीय बुद्धिजीवियों में से थे, जिन्होंने इस शोषण का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया.
उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी और क्राउन शासन के अंतर्गत भारत की आर्थिक समस्याओं का गहन अध्ययन किया और तथ्यों व तालिकाओं के आधार पर कई शोधपत्र प्रस्तुत किये. दो मई,1867 को ‘ईस्ट इंडिया एसोसिएशन’ की बैठक में उन्होंने अपने शोधपत्र ‘भारत के प्रति इंग्लैंड के कर्तव्य’ में पहली बार धन निकासी के सिद्धांत (ड्रेन ऑफ वेल्थ थ्योरी) को प्रस्तुत किया. इस सिद्धांत के अनुसार, भारत से इंग्लैंड में जो विशाल धनराशि भेजी जाती थी, उसके बदले भारत को कोई प्रत्यक्ष आर्थिक या व्यापारिक लाभ नहीं मिलता था. नौरोजी का स्पष्ट मत था कि धन निकासी की यह प्रक्रिया भारतीय निर्धनता और पिछड़ेपन का मूल कारण है. वर्ष 1876 में उक्त संस्था के समक्ष उन्होंने ‘द वांट्स एंड मीन्स ऑफ इंडिया’ शीर्षक से एक और शोधपत्र प्रस्तुत किया, जिसमें दर्शाया गया कि 1835 से 1872 के बीच भारत से लगभग 50 करोड़ पाउंड स्टर्लिंग (आज के संदर्भ में हजारों करोड़ रुपये) इंग्लैंड भेजे गये. उनके अनुसार, हर वर्ष औसतन 30 मिलियन पाउंड की धनराशि भारत से बाहर इंग्लैंड भेजी जाती है. नौरोजी ने एक सच्चे देशभक्त और प्रखर अर्थशास्त्री के रूप में न केवल इस शोषण को संख्यात्मक रूप में प्रमाणित किया, बल्कि अपने तर्कों से अंग्रेज अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं को भी इस विषय पर गंभीर बहस करने के लिए विवश कर दिया. अपने विलक्षण व्यक्तित्व के लिए वे आने वाली कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे.

