पंडित नेहरू के हृदय की सरलता और उनके भीतर कहीं बैठा बचपन उनकी ताकत था. नेहरू एक संवेदनशील राजनेता थे. एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था, ‘उन्हें 36 करोड़ समस्याओं से जूझना है’. तब देश की आबादी 36 करोड़ थी. उनका मानना था कि देश के हर नागरिक की समस्या को देश की समस्या समझना होगा. समस्याओं के मानवीकरण को लेकर उनकी यह सोच उनके समूचे राजनीतिक दर्शन का निचोड़ है.
शायद मैं आठवीं-नौवीं में पढ़ता था, जब मैंने जवाहरलाल नेहरू को देखा था. बात 1955-56 की है. मैं तब दिल्ली गया हुआ था. पता चला कि तालकटोरा गार्डन में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू आनेवाले हैं. उन्हें देखने मैं भी वहां पहुंच गया. नेहरूजी मंच पर भाषण दे रहे थे. जहां मैं खड़ा था, उसके आस-पास कुछ शोर-सा होने लगा. दरअसल, वहां तक नेहरूजी की आवाज नहीं पहुंच रही थी. शोर बढ़ गया, तो नेहरू चुप हुए और फिर बात को समझ कर अचानक उन्होंने झटके से माइक को एक तरफ सरका दिया और फिर तल्खी से माइक के इंतजाम के बारे में कुछ बोले. उनका चेहरा लाल हो गया. इंतजाम करनेवाले तो सहमे ही, भीड़ भी सहम गयी थी. और फिर नेहरूजी तेजी से मंच से नीचे उतरे और सीधे वहीं पहुंचे जहां से शोर हो रहा था. अब मैं उनसे बहुत दूर नहीं था. वहां पहुंचते ही उनका गुस्सा गायब हो गया. अब उनके चेहरे पर मुस्कान थी. शोर करनेवालों में से एक के कंधे पर हाथ रख कर उन्होंने पूछा, ‘मेरी आवाज नहीं सुनाई दे रही है?’ हम सब हक्के-बक्के थे. बस, नेहरू को ही देखे जा रहे थे. वे मुस्कुराते हुए वापस लौट गये. मंच पर पहुंच कर माइक पकड़ कर बोलने लगे. जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. पर हुआ बहुत कुछ था. उस दिन मैंने लोगों के सिर पर चढ़ कर बोलते हुए नेहरू के जादू को देखा था. उनका गुस्सा, उनकी मुस्कान, उनका एक श्रोता के कंधे पर हाथ रखना.. उस भाषण के दौरान फिर किसी ने कोई शिकायत नहीं की, जबकि सुनाई पहले जितना और पहले जैसा ही पड़ रहा था. फर्क सिर्फ उस जादू का था, जो नेहरू के व्यक्तित्व का हिस्सा था.
बरसों-बरसों यह जादू देश के जन-मानस पर छाया रहा है. 1929 में नेहरू पहली बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, तब पहली बार वह जादू दिखा था. तब नेहरू ने ‘पूरी आजादी’ का नारा लगाया था. युवा नेहरू ने तब देश की जवानी को कसम दिलायी थी- पूरी आजादी लेनी है, पूरी आजादी लेंगे हम. 1947 में जब आजादी मिली तो देश ने उसी जवाहलाल को स्वतंत्र देश का पहला प्रधानमंत्री बनाया, जिसने आगे चल कर 1955 में कांग्रेस में समाजवादी समाज की रचना को एक लक्ष्य के रूप में देश के समक्ष रखा. प्रस्ताव रखते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं इसे एक आकांक्षा के रूप में नहीं, एक शपथ के रूप में आपके सामने रख रहा हूं.. यह उस भविष्य के प्रति एक चुनौती है, जिसे हमें जीतना है.’
यह चुनौती जीवन भर नेहरू के सामने रही और वे जीवन भर उस कल्याणकारी राज्य और समाजवादी समाज की रचना में लगे रहे, जिसका सपना उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान देखा था. रवींद्रनाथ ठाकुर ने नेहरू में एक वसंत देखा था और गांधीजी को उनमें अपना उत्तराधिकारी दिखा था- और स्वतंत्र भारत ने उनकी आवाज में अपनी आशाओं-आकांक्षाओं के पूरा होने की आहट सुनी थी.
1959 में नेहरू ने देश की जनता से एक ‘खुली अपील’ की थी. भारत देश और भारतीय समाज के बारे में उनकी सोच का एक नक्शा है यह अपील. 15 सूत्री अपील में उन्होंने कहा था, राजनीतिक मतभेदों के बावजूद देश की एकता और भलाई के लिए सबको एकजुट हो जाना चाहिए ; धर्म, जाति, क्षेत्रीयता आदि से ऊपर उठ कर एक राष्ट्र के बारे में सोचना चाहिए; ऊंच-नीच से मुक्त होकर हमें अच्छा नागरिक बनने का संकल्प लेना चाहिए, जो राष्ट्र-हित को सर्वोच्च मानता है; महिलाओं को सम्मान और समानता का अधिकार मिलना चाहिए; ग्रामोद्योगों एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिलना चाहिए और यथासंभव खादी का उपयोग होना चाहिए. इस अपील में उन्होंने बच्चों के प्रति समाज के व्यवहार की बात की, नशे के उन्मूलन की वकालत की, भ्रष्टाचार को समाप्त करने की महत्ता समझायी, घरों, सड़कों, गावों को स्वच्छ रखने का मंत्र दिया, पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत होनेवाले काम में जन-सहयोग का महत्व बताया. रचनात्मक काम के लिए शारीरिक मेहनत के महत्व को रेखांकित किया.
इसी अपील में बड़ी-बड़ी बातें नहीं हैं, पर बड़े-बड़े उद्देश्यों को पूरा करनेवाले वे छोटे-छोटे कदम स्पष्ट हैं, जो विकास और समृद्धि के लक्ष्यों तक ले जा सकते हैं. भाखड़ा-नांगल जैसे उपक्रमों को स्वतंत्र भारत के नये मंदिर माननेवाले नेहरू ने पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से भावी भारत के निर्माण की आधारशिला रखी थी. बदलती दुनिया में आज भले ही किसी को यह लग रहा हो कि नेहरू के विचार पुराने पड़ गये हैं, लेकिन इस सत्य से आंख नहीं चुरायी जा सकती कि आजादी मिलने के तत्काल बाद के वर्षो में नेहरूजी के नेतृत्व में देश ने भावी विकास की दिशाएं ही निर्धारित नहीं कर ली थीं, बल्कि उन दिशाओं में इतना आगे भी बढ़ गया था कि दुनिया के लिए भारत की अनदेखी करना असंभव हो गया था. सच तो यह है कि 15 अगस्त 1947 को ‘नियति के साथ साक्षात्कार’ की जो बात नेहरू ने की थी, वह भारत तक ही सीमित नहीं थी. वह एक संकल्प था उन सबको अपने साथ लेकर आगे बढ़ने का, जो दबे हुए थे, जो पिछड़े थे, जिनकी आशाओं-आकांक्षाओं को फलने-फूलने के अवसर नहीं मिल रहे थे. तब नेहरू ने कहा था, स्वतंत्रता दुनिया के हर नागरिक का अधिकार है. हम दुनिया भर में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता के लिए हर संघर्ष में सहभागी होंगे.
यह संघर्ष वे जीवन भर करते रहे. वे भारत के प्रधानमंत्री अवश्य थे, लेकिन उन्हें विश्व-नागरिक की भूमिका ही हमेशा रास आयी. वे राजनीतिज्ञ नहीं, राजनेता थे. राजनेता मात्र सत्ता की राजनीति नहीं करते, राजनीति उनके लिए वृहत्तर मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति का माध्यम भर होती है. यह अतिशयोक्ति लग सकता है, पर यह सच है कि नेहरू जैसे नेता का कद नापने के लिए आकाश को ऊंचा करने की जरूरत पड़ती है. इसलिए ही नेहरू की गणना विश्व के महान नेताओं में होती है.
इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि नेहरू में कमियां नहीं थीं, अथवा उनसे कभी कोई गलती नहीं हुई. देश में ऐसे लोग भी हैं जो देश की आज की समस्याओं के लिए नेहरू को ही जिम्मेवार मानते हैं. उनकी इस मान्यता में सचाई हो सकती है, लेकिन इससे यह सच धुंधला नहीं पड़ता कि देश की भलाई के लिए नेहरू को जो उचित लगा, उसे ईमानदारी से करने की कोशिश उन्होंने हमेशा की थी. नेहरू और बेहतर काम कर सकते थे, यह भी सच हो सकता है, लेकिन इससे उन सबका महत्व कम नहीं होता, जो उन्होंने किया. नेहरू ने भावी भारत की एक मजबूत नींव रखी थी. देश के संविधान में उल्लिखित मूल अधिकारों, लोकतांत्रिक समाज की परिकल्पना तथा जनतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत बनानेवाले संस्थानों की स्थापना के लिए देश नेहरू का चिरऋणी रहेगा.
मैंने शुरू में नेहरू के जादू की बात कही थी, पर वे हाथ की सफाई दिखानेवाले जादूगर नहीं थे. वे सम्मोहन की कला भी नहीं जानते थे. उनके हृदय की सरलता और उनके भीतर कहीं बैठा बचपन उनकी ताकत था. नेहरू एक संवेदनशील राजनेता थे. एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था, ‘उन्हें 36 करोड़ समस्याओं से जूझना है’. तब देश की आबादी 36 करोड़ थी. कहना वे यह चाहते थे कि देश के हर नागरिक की समस्या को देश की समस्या समझना होगा. समस्याओं के मानवीकरण को लेकर उनकी यह सोच उनके समूचे राजनीतिक दर्शन का निचोड़ है. गांधी का आखिरी व्यक्ति के हित वाला सिद्धांत उन्होंने स्वीकारा ही नहीं, हमेशा उसका पालन करने की कोशिश भी की. ऐसी ही कोशिश किसी नेता को इतिहास बनानेवाला बनाती है. पंडित नेहरू इतिहास-निर्माता थे.
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
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