बिहार के मिथिला जनपद में प्रचलित एक कहावत का आशय है कि ‘मेरी मरजी, पति को मैं भाभी कहूं’. कुछ ऐसा ही मनमानापन झारखंड के नियंता इस राज्य के साथ करते रहे हैं.
14 सालों में नौ मुख्यमंत्री तथा दस मुख्य सचिव देनेवाले इस प्रदेश के 28 नेताओं के घर छापे पड़े और 332 सरकारी कर्मी और अधिकारी जेल गये. विभिन्न दल मुख्यमंत्री पद के लिए तो आदिवासी होने की बाध्यता की राजनीति कर लेते हैं, पर उनकी जिंदगी से जुड़े मसलों को मुद्दा कोई नहीं बनाता. मुख्यमंत्री पद के लिए कभी आदिवासी पृष्ठभूमि की बाध्यता की वकालत करनेवाले लोग भले ही किन्हीं कारणों से अब उस लीक को छोड़ रहे हैं या उन्हें लगने लगा है कि इस लीक को और नहीं पीटा जा सकता है, बावजूद इसके झारखंड के मौजूदा सीएम हेमंत सोरेन ने एक दिन कहा कि झारखंड का मुख्यमंत्री आदिवासी ही हो सकता है.
दूसरे दिन उनके पिता व झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन कहते हैं कि मुख्यमंत्री गैर आदिवासी भी हो सकता है, बशर्ते वह योग्य व सक्षम हो. मुख्यमंत्री पद के लिए आदिवासी होने की बाध्यता पर शोर-शराबा करनेवालों का घोषणापत्र जब आता है तो उसमें से जातीय अस्मिता के स्वर ही गायब मिलते हैं. सफाई में आधिकारिक रूप से कहा जाता है कि घोषणापत्र तो पूरा तैयार था, भूल छापने में हुई है.
सार्वजनिक चर्चा के लिए जानेवाली चीजों को लेकर यदि उच्चस्तरीय जिम्मेवारी और गंभीरता नहीं बरती जाती तो यह यह यकीन कैसे कर लिया जाये कि जिम्मेवारी भरे मसलों पर यह पार्टी क ोई गंभीर रुख अपनायेगी. आदिवासी अस्मिता को लेकर झामुमो का रवैया सत्ता के लोभ में ढुलमुल हो गया है. वही झारखंड है और वही शिबू सोरेन हैं. चार दशकों का इतिहास रहा है कि दशहरा में शिबू ने रावण दहन नहीं किया. लेकिन इन दिनों जब से हेमंत सत्ता में आये, वह रावण दहन करने लगे और अब तो शिबू भी रावण दहन करने लगे. पूरे तामझाम के साथ. यह तब हो रहा है जब धरती के सबसे ‘अवांछित’ प्राणी मान लिये गये आदिवासियों के साथ झारखंड में ज्यादतियों और उत्पीड़न में कोई कमी नहीं आयी. यह सब कुछ सिर्फ इसलिए हुआ कि सत्तासीन होनेवाले लोग राज्य को जागीर मानने लगे और उनके राजनीतिक एजेंडे से आदिवासी मुद्दे गायब होने लगे.