सरकार के जरिये जिस तरह ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द का मजाक उड़ाया जा रहा है, वह अभूतपूर्व है. ‘सेक्युलरिस्ट’ में नया दुश्मन खोज लिया गया है. क्या सरकार भूल गयी है कि सेक्युलरिज्म संविधान के पहले पन्ने पर दर्ज है?
अपनी जापान-यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां के सम्राट को उपहारस्वरूप गीता की प्रति सौंपने के अपने फैसले के संदर्भ में भारत के ‘सेक्युलरवादियों’ का उपहास करते हुए कहा, ‘सेक्युलरवादी इस पर भी तूफान खड़ा करेंगे. टीवी स्टूडियो में बहसें होंगी.’ लेकिन प्रधानमंत्री को निराश होना पड़ा.
यह मुद्दा टीवी स्टूडियो की गरमागरम बहसों का विषय नहीं बना, क्योंकि सेक्युलरवादियों और पत्रकारों-टिप्पणीकारों को इतना मालूम है कि गीता न तो किसी संप्रदाय विशेष के संकीर्ण विचारों का संचयन है और न ही वह गोलवलकर का ‘बंच ऑफ थॉट्स’ है. वह कर्म की महत्ता का अमर संदेश है. सत्ता-शीर्ष से आनेवाली ऐसी टिप्पणियां बेवजह विवाद पैदा करती हैं. ऐसा लगता है, इस सरकार को ‘विवाद’ और ‘दुश्मन’ तलाशने का शौक है. इस मायने में आजादी के बाद संभवत: यह देश की पहली सरकार है, जो अपने फैसलों में विधान, परंपरा और विवेक से ज्यादा अपनी निजी पसंद-नापसंद को प्रमुखता दे रही है. सरकार के जरिये जिस तरह ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द का मजाक उड़ाया जा रहा है, वह अभूतपूर्व है. ‘सेक्युलरिस्ट’ में नया दुश्मन खोज लिया गया है. क्या सरकार भूल गयी है कि सेक्युलरिज्म संविधान के पहले पन्ने पर दर्ज है?
दुखद है कि अपने से असहमत लोगों में ‘दुश्मन’ तलाशने की प्रवृत्ति का सत्ता-संरचना में आज वर्चस्व-सा है. भाजपा ने कुछ प्रदेशों में, जहां निकट भविष्य में चुनाव होने हैं, सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से अलग-थलग करने का अभियान-सा छेड़ दिया है. पश्चिमी यूपी के दंगों के बाद अब ‘लव-जेहाद’ के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है. ‘लव जेहाद’ सिर्फ एक घोर सांप्रदायिक-फासीवादी मानसिकता से उपजा जुमला भर है. लव और जेहाद का भला क्या रिश्ता हो सकता है? शादी-व्याह की किसी धोखाधड़ी को ‘जेहाद’ से जोड़ने का क्या अर्थ है? पर विडंबना देखिए, इस महीने यूपी में होनेवाले उपचुनावों में पार्टी इस मुद्दे का डंका पीट रही है. ऐसे मुद्दों के विशेषज्ञ एक पार्टी नेता को प्रचार-अभियान में खास तौर पर लगाया गया है. कश्मीर, महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड में भी ऐसे फॉमरूले आजमाये जा रहे हैं. क्या ऐसा ध्रुवीकरण एक सुनियोजित अभियान नहीं है? खतरे के सायरन की ये कर्कश आवाजें भला बांसुरी और ड्रम की नुमाइशी मधुर तान में कैसे छुपेंगी?
लोकसभा चुनाव-प्रचार के समय ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा लगा था. सरकार बनने के बाद विपक्षियों के साथ व्यवहार में उस नारे की अभिव्यक्ति साफ दिख रही है. लोकसभा में विपक्ष के नेता पद का विवाद संसदीय दायरे में नहीं सुलझाया जा सका. मामला अदालत में जा पहुंचा. सर्वोच्च न्यायालय को टिप्पणी करनी पड़ी. लोकपाल और सीवीसी जैसी नियुक्तियों में विपक्ष की नुमाइंदगी कौन और कैसे करेगा, इसका समाधान होना बाकी है. इस तरह का भाव सिर्फ दलों तक सीमित नहीं रहा. व्यक्तियों पर भी वह दिख रहा है. सिर्फ निजी खुन्नस की वजह से देश के एक काबिल वकील गोपाल सुब्रrाण्यम को सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनने दिया गया. उनमें एक ‘दुश्मन’ तलाश लिया गया. लेकिन निजी पसंद के चलते सुप्रीम कोर्ट के अवकाशप्राप्त मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम को सारे मान-मूल्यों को ताक पर रखकर केरल का राज्यपाल बना दिया गया. आजादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ.
सरकार के अंदर भी ‘दोस्तों-दुश्मनों’ की कतारें खड़ी कर ली गयी हैं. पहले एक वरिष्ठ मंत्री के फोन-टेप का मामला सुर्खियों में था. अब देश के गृह मंत्री की साख निशाने पर बतायी जा रही है. घटनाक्रम चौंकानेवाले हैं. पहले अफवाहों की आंधी उड़ायी गयी. फिर प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ), भाजपा अध्यक्ष और स्वयं गृह मंत्री की सफाई आयी. सरकार के कुछ वरिष्ठ मंत्रियों में जिस तरह की खींचतान है, वैसी तो यूपीए-2 में शामिल अलग-अलग दलों से संबद्ध मंत्रियों के बीच भी नहीं थी. औपचारिक रूप से भले कोई न कहे, लेकिन सरकार के कई मंत्रियों को लगता है कि उन पर बेवजह निगाह रखी जाती है; या कि नौकरशाही उनकी नहीं सुन रही है. बड़े नौकरशाह सीधे पीएमओ से निर्देश लेते हैं. अचानक मंत्रलय पर फैसले थोप दिये जाते हैं. उससे कई तरह की प्रशासनिक और तकनीकी मुश्कलें भी खड़ी हो जाती हैं. पिछले दिनों भारत-पाक विदेश सचिव स्तर की वार्ता रद्द करने का फैसला इसका सबूत है. विदेश मंत्रलय को अंत तक नहीं मालूम था कि 25 अगस्त को इसलामाबाद में होनेवाली वार्ता को रद्द करने का फैसला हो सकता है. दिल्ली स्थित पाक-उच्चायुक्त को हुर्रियत नेताओं से न मिलने की हिदायत अचानक दी गयी. मिलने पर वार्ता रद्द करने का फैसला भी अचानक ही लिया गया. राजनय से जुड़ी एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया के लिए महज एक-डेढ़ घंटे का वक्त दिया गया. इस तरह, पाकिस्तान से दोस्ती के बढ़े हाथ (जो प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान दिखा था) अचानक पीछे खींच लिये गये और वर्षो से जारी सिलसिले को पटरी पर लाते हुए फिर एक ‘स्थायी दुश्मन’ को कतार में खड़ा कर दिया गया.
भारत-पाक सरहद पर गोलाबारी को दोनों देशों की हुकूमतों ने अपनी ताकत और अस्तित्व का हिस्सा-सा मान लिया है. लेकिन जब से दिल्ली में नयी सरकार आयी है, सरहद पर तनाव बहुत बढ़ गया है. बीएसएफ महानिदेशक के मुताबिक सरहदी इलाकों में ऐसी गोलाबारी 1971 के बाद कभी नहीं हुई. जम्मू-कश्मीर सरकार व केंद्रीय एजेंसियों ने भी माना है कि बीते तीन महीनों के दौरान सरहद पर तनाव और गोलाबारी में भारी इजाफा हुआ है. इसमें सैनिकों के साथ नागरिक भी मारे गये हैं. गोलाबारी के चलते हजारों लोग सरहदी गांवों को छोड़ कर जम्मू और कश्मीर के अंदर अपेक्षाकृत सुरक्षित क्षेत्रों की तरफ भाग आये हैं. पाकिस्तान की तरफ से भी ऐसे ही समाचार आ रहे हैं.
समाज से सरकार और सरहद तक, हर जगह ‘विवाद’ और ‘दुश्मन’ तलाशनेवाली इस तरह की सियासत ऊपर से चाहे जितनी दमदार दिखे, चाहे वह सरहद पर बुलेट चलवाये या कुछ चुनिंदा महानगरों के बीच जापानी-सहयोग से बुलेट ट्रेन दौड़ाये, बात-बात में चौड़ा सीना दिखाये या ‘देशभक्ति’ की ऊंची आवाज लगाये, अंतत: यह हमारे जीवन, सभ्यता और समाज के लिए नकारात्मक है. देश को नकली देशभक्ति नहीं, सभी समुदायों के बीच प्रेम और सद्भाव की दरकार है. तरक्की ‘दुश्मनों’ की सूची लंबी करने से नहीं, बल्कि सहयोग और दोस्ताना रिश्तों की जमीन तैयार करने से होगी.
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
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