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महिलाओं के श्रम का हो सम्मान

असीम श्रीवास्तव प्राध्यापक, अशोका यूनिवर्सिटी इरीना चीमा शोधार्थी आर्यमान जैन पर्यावरण इंजीनियर editor@thebillionpress.org भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्याओं के समाधान के लिए इन दिनों कुछ मौलिक उपाय सुझाये जा रहे हैं, जैसे महिलाओं की आय को 10 से 15 वर्षों के लिए पूरी तरह आयकर मुक्त कर देना, जिसका उद्देश्य उपभोग बढ़ाने से लेकर महिलाओं के […]

असीम श्रीवास्तव
प्राध्यापक, अशोका यूनिवर्सिटी
इरीना चीमा
शोधार्थी
आर्यमान जैन
पर्यावरण इंजीनियर
editor@thebillionpress.org
भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्याओं के समाधान के लिए इन दिनों कुछ मौलिक उपाय सुझाये जा रहे हैं, जैसे महिलाओं की आय को 10 से 15 वर्षों के लिए पूरी तरह आयकर मुक्त कर देना, जिसका उद्देश्य उपभोग बढ़ाने से लेकर महिलाओं के लिए भुगतान-युक्त जॉब के अवसरों में वृद्धि भी है.
गौरतलब है कि वर्ष 2004-05 से 2017-18 के 13 वर्षों के अंतर्गत महिला श्रम-बल भागीदारी दर 10 प्रतिशत तक गिरकर 23.3 प्रतिशत पर आ गयी है. शहरी महिलाओं के लिए यह दर जहां 24.4 प्रतिशत से फिसलकर 20.4 प्रतिशत पर पहुंच चुकी है, वहीं ग्रामीण महिलाओं के लिए तो यह 49.4 प्रतिशत से आधी होकर केवल 24.6 प्रतिशत ही रह गयी है. यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें उपर्युक्त सुझाव की परीक्षा की जानी चाहिए.
पहली बात तो यह है कि ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी में गिरावट इसलिए काबिले-गौर है कि इसका कारण स्वयं कृषि में आयी गिरावट है, जो ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार का मुख्य स्रोत है. कृषि की बदहाली के नतीजे में अपना रुख रोजगार के अन्य स्रोतों की ओर करके पुरुष कामगारों ने एक हद तक अपनी समस्या हल कर ली, पर महिला कामगारों के साथ ऐसा नहीं हो सका. अभी महिलाओं के लिए पर्याप्त भुगतान युक्त जॉब हैं कहां, जो वे उन्हें श्रम-बल में शामिल होने हेतु आकृष्ट कर सकेंगे? दूसरी बात, अधिकतर ग्रामीण महिलाओं की आय वैसे भी कर छूट सीमा (2.5 लाख रुपये) से कम ही होती है, इसलिए यह भी स्पष्ट नहीं कि यह उपाय कैसे उन्हें श्रम-बल में वापस खींच सकेगा.
इस प्रस्ताव की तीसरी अंतर्निहित मान्यता यह है कि महिलाओं के हाथ में अधिक पैसे होने का नतीजा अनिवार्य रूप से अधिक उपभोग के रूप में सामने आयेगा, जिससे अर्थव्यवस्था के अंदर समग्र मांग में बढ़ोतरी होगी. यह निष्कर्ष स्वयं ही संदिग्ध है. परिवार में महिलाएं स्वभावतः पुरुषों से ज्यादा बचतशील और खासकर सरकार से अधिक बचतशील तो अनिवार्य रूप से होती ही हैं.
चौथा बिंदु, यदि यह सच भी हो कि महिलाओं के हाथों में अधिक क्रयशक्ति से अर्थव्यवस्था में उपभोग की बजाय समग्र बचत अधिक होने लगेगी, तो फिर ‘बचत विडंबना’ के बारे में कीन्स की धारणा मूर्त हो उठेगी, जिसके अनुसार ऐसी स्थिति के नतीजे से मांग में आयी कमी राष्ट्रीय आय भी कम कर देगी, जिससे अंततः बचत में भी गिरावट आ जायेगी.
पांचवां बिंदु, विकास की आधुनिक मान्यता के अनुसार, वृद्धि के प्रारंभिक चरणों में कृषि उत्पादकता एवं कृषि आय वृद्धि पर जोर देते हुए उसके श्रम-बल को इस हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वह उद्योगों की अधिक ऊंची उत्पादकता की ओर स्थानांतरित हो.
इसका उद्देश्य यह होता है कि ग्रामीण आय में वृद्धि हो, ताकि वह औद्योगिक उत्पादों की मांग बढ़ाते हुए ‘वृद्धि के सदचक्र’ को जन्म दे सके. यहां यह पूछना प्रासंगिक होगा कि आखिर कृषि से लोगों को स्थानांतरित करना ही क्यों चाहिए? उद्योगों में सस्ते श्रम-बल की बाढ़ लाने की बजाय कृषि के अधिक गरिमापूर्ण कार्य में क्या बुराई है?
यदि कृषकों में कृषि से बाहर निकलने का एक स्वतंत्र प्रोत्साहन मौजूद हो उठा है, तो इसकी वजह कहीं यह तो नहीं कि पिछले कई दशकों के दौरान भारत समेत पूरे विश्व में कृषि विरुद्ध नीतियों में बढ़ोतरी ने लघुस्तरीय कृषि का जीवित रहना कठिन कर दिया है?
गांधीवादी चिंतक चित्रा सहस्रबुद्धे के अनुसार, विकास के इस मार्ग के फलस्वरूप महिलाएं कई पीढ़ियों से पीड़ित होती आ रही हैं, क्योंकि कृषि के यंत्रीकरण एवं घरेलू उद्योगों के विनाश ने उन्हें बेकाम कर दिया है. शहरों में स्थित नये उद्योगों ने न केवल महिलाओं को एक प्रतिकूल माहौल में काम करने को विवश किया, बल्कि इसने महिलाओं के ज्ञान पर आधारित घरेलू उद्योगों को भी विनष्ट कर डाला.
भारत में अधिकतर महिलाएं अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय योगदान करती हैं, भले ही उसके बड़े हिस्से की गणना औपचारिक सांख्यिकी में न की जाती हो. मसलन, उपले बनातीं महिलाएं राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण योगदान करती हैं, जिस बायो-ईंधन पर देश के करोड़ों घर चलते हैं. यदि ये घर जीवाश्म ईंधन पर स्थानांतरित हो जायें, तो यह न सिर्फ एक पारिस्थितिक विभीषिका का कारण बनेगा, बल्कि राष्ट्र की अर्थव्यवस्था के लिए भी अत्यंत प्रतिकूल होगा.
गोबर खेतों के लिए न केवल खाद का काम करता है, बल्कि इसके कई अन्य इस्तेमाल भी होते हैं. इसके बलबूते देश द्वारा बचाये अरबों डॉलर के कीमती विदेशी विनिमय का हिसाब मुख्य धारा के अर्थशास्त्रियों द्वारा नहीं किया जाता, न ही इस तरह के श्रम का सम्मान किया जाता है. उनके अनुसार तो इन महिलाओं को भी घर से दूर, उद्योगों में रोजगार पाना चाहिए, जहां वे अपना सस्ता श्रम न्यूनतम अधिकारों की एवज में बेचकर गंदी बस्तियों में गुजर करते हुए स्वच्छ वायु और जल से वंचित ही रहेंगी.
विकास के इस रास्ते पर भारत अधिक सफलता हासिल नहीं कर सका है. इस मार्ग से न केवल हमने अपने लिए कृषि संकट पैदा कर लिया, बल्कि फसल चक्र, खाद्य, स्वास्थ्य की देखरेख, गृह निर्माण, पहनावे संबंधी घरेलू ज्ञान के साथ ही अपनी मिट्टी, जल और हवा को भी विनष्ट कर डाला है. और सबसे बढ़ कर तो यह कि हम उद्योगों में ही ‘उच्च उत्पादकता’ के रोजगारों का सृजन कहां कर पाये कि श्रम-बल को वहां स्थानांतरित कर सकें? नतीजा यह हुआ कि करोड़ों लोग बेरोजगार और अपनी जड़ों से कट कर अलग रह गये. इस स्थिति से सबसे अधिक महिलाएं प्रभावित हुईं.
मगर विकल्प मौजूद हैं, जिसके लिए ग्रामीण पुनर्रचना पर गौर करना होगा. किसानों की समस्याओं का प्राथमिकता से समाधान करना होगा.
हस्तकलाओं तथा हथकरघे को उनका उचित स्थान देना होगा. विकास के शहर-केंद्रित मॉडल की जगह श्रम सघन ग्रामीण विकास पर जोर देना होगा, जिससे पुरुष अपने घरों के निकट रोजगार पाकर घरेलू जिम्मेदारियों को महिलाओं के साथ साझा करते हुए उनका भार कम कर सकेंगे. स्थानीय जल स्रोतों, साझी भूमि, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, तथा खाद्य के संबंध में निर्णय प्रक्रिया को हर हाल में स्थानीय समुदायों के जिम्मे कर देना चाहिए, ताकि महिलाएं अपने आर्थिक जीवन में अपना उचित अधिकार पा सकें.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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