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धर्म और राजनीति

विजय कु. चौधरी अध्यक्ष, बिहार विधानसभा delhi@prabhatkhabar.in धर्म और राजनीति दोनों सदियों से व्यक्ति एवं समाज पर गहरा प्रभाव डालनेवाले विषय रहे हैं. दोनों ने ही मानव सभ्यता के विकास में अहम भूमिका निभायी है और समय-समय पर मानव इतिहास को नयी दिशा भी दी है. इतिहास ने धार्मिक केंद्रों को राजनीतिक सत्ता-केंद्र के रूप […]

विजय कु. चौधरी
अध्यक्ष, बिहार विधानसभा
delhi@prabhatkhabar.in
धर्म और राजनीति दोनों सदियों से व्यक्ति एवं समाज पर गहरा प्रभाव डालनेवाले विषय रहे हैं. दोनों ने ही मानव सभ्यता के विकास में अहम भूमिका निभायी है और समय-समय पर मानव इतिहास को नयी दिशा भी दी है.
इतिहास ने धार्मिक केंद्रों को राजनीतिक सत्ता-केंद्र के रूप में भी कार्य करते देखा है. फिर भी इन दोनों के आपसी संबंध चर्चा के मुद्दे बनते रहे हैं. कभी-कभी इनकी मिथ्या-प्रस्तुति के कारण विवाद भी पैदा होते रहे हैं. इस परिप्रेक्ष्य में इस विषय पर गहराई से चिंतन करना समीचीन है.
धर्म क्या है? शास्त्रसम्मत विचार से जिसे धारण किया जा सके वह धर्म है. स्वाभाविक रूप से धर्म वह धारणीय क्रिया है, जो हमें जीने का रास्ता दिखाती है एवं नेकी पर चलने का मार्ग प्रदर्शित करती है. वैसे हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि के संबंध में कहा जाता है कि ये धर्म नहीं संप्रदाय हैं. धर्म तो हर मनुष्य का एक ही है, वह है मानव धर्म.
गहराई में जाने पर सभी धर्मों का एक ही संदेश मिलता है, वह है परोपकार, यानी दूसरों की मदद. वेद, रामायण अथवा हिंदू धर्मग्रंथों का सार यही है कि दूसरों की सहायता करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है. इस्लाम में रहमत को सबसे ऊंचा दर्जा दिया गया है.
ईसाई लोग अपने धर्म का आधार ही गरीबों एवं मजलूमों की सेवा को मानते हैं. सत्कर्म के अलावा मिल-बांटकर खाना सिख धर्म की रीढ़ है. मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा जाना या व्रत, अनुष्ठान, रमजान, ईस्टर और गुरुपर्व मनाना ये सब सिर्फ धार्मिक दस्तूर या रीति-रिवाज हैं. ये मनुष्य को धार्मिक अनुशासन में रखने के उपक्रम होते हैं, जिनके प्रभाव में वह धार्मिकता की ओर प्रवृत्त होता है. पूजा-पाठ, दर्शन, प्रार्थना सभी आत्मलक्षित उपादान होते हैं. धर्म तो सिर्फ परोपकार और मानव सेवा में निहित है.
राजनीति क्या है? योजनाबद्ध नीति एवं कार्यक्रमों द्वारा शासन प्राप्त करना राजनीति का अभिप्राय है. राजनीति के जनक अरस्तू एवं अन्य विशेषज्ञों की नजर में जनता के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर को ऊंचा करना ही राजनीति का लक्ष्य होता है.
यह सामाजिक समस्याओं को हल करने की कला एवं विज्ञान दोनों हैं, जिसे सामूहिक प्रयासों से मूर्त्त रूप दिया जाता है. इसके अलावा राजनीति शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के नियमों को खोजने की भी प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्तियों की जरूरतों एवं प्रयासों के अनुसार तमाम संसाधनों को वितरित करने की विधि है.
विषय-क्षेत्र के मद्देनजर, धर्म वैयक्तिक उत्थान का साधन है, तो राजनीति सामाजिक उत्थान का माध्यम है. पहला व्यक्ति के आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना से नैतिकता रेखांकित करता है जबकि दूसरा, समाज के आर्थिक विकास के आयाम तय करता है. एक का संबंध आत्मिक परिष्करण से है, दूसरा सक्रियता एवं कार्यप्रणाली आधारित समाज सेवा में आगे निकलने की स्पर्धा है. दोनों के कार्य-क्षेत्र अलग एवं समानांतर हैं. इनमें कहीं भी टकराव की स्थिति नहीं है.
धर्म एवं राजनीति को अलग रखने की बात चर्चा में रहती है. दोनों के विषय-क्षेत्र अलग हैं एवं दोनों के क्रियान्वयन में जब कोई टकराहट ही नहीं है, तो इनको अलग रखने की बात बेमानी हो जाती है. समाज के निर्माण एवं प्रगति में ये दोनों ताने-बाने की तरह हैं. इनको अलग करने से अच्छा होगा कि इन्हें दुष्प्रभावों एवं कुनीतियों से बचाया जाये.
धर्म में राजनीति की गुंजाइश नहीं हो सकती, लेकिन राजनीति तो धार्मिकता के साथ हो सकती है. गौरतलब है कि धार्मिकता अगर पूर्ण रूप से छोड़ दी जाये, तब तो राजनीति ही मूल उद्देश्य से भटक जायेगी. निष्कलुष धार्मिकता तो स्वच्छ एवं स्वस्थ राजनीति का मार्ग प्रशस्त करती है. हर धर्म दूसरे धर्मावलंबियों को सम्मान एवं सहिष्णुता की दृष्टि से देखने की नसीहत देता है. फिर धार्मिकता से की गयी राजनीति तो धर्म निरपेक्षता ही प्रतिपादित करती है.
मुख्यतः धर्म और राजनीति के लक्ष्य भी तो समान कोटि के ही हैं. धर्म के माध्यम से व्यक्ति का आचरण, व्यवहार और कर्म उदात्त होता है और सही राजनीति से समाज विकास एवं समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर होता है.
मूल तो सभी धर्मों का एक ही है, वह है परोपकार. हर एक धर्म दूसरों की सेवा करना सिखाता है और राजनीति करनेवाले लोग सदैव जनसेवा का ही संकल्प लेते हैं. अगर हम अपने व्यक्तिगत दिनचर्या में पीड़ितों, वंचितों की मदद करते रहें और राजनेता सच्चाई और ईमानदारी से जनकल्याण के लिए उद्यत रहें, तो धर्म और राजनीति दोनों एक-दूसरे की सहचरी बनकर स्वाभाविक गति से चलते हैं.
यह सही है कि समय के साथ-साथ धर्म और राजनीति दोनों के मूल्यों में गिरावट एवं संक्रमण काल आते रहे हैं. यह तो व्यक्ति अथवा समाज के चरित्र और ईमान पर निर्भर करता है, चाहे वह किसी धर्म का हो या किसी स्तर की राजनीति से जुड़ा हो.
अगर हृदय निर्मल नहीं है, तो लोग धार्मिक कार्यों में भी शुचिता नहीं बरतते हैं और राजनीति में तो अवांछित आचरण के एक से बढ़कर एक मिसाल उजागर होते रहते हैं. मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारे में प्रतिदिन हाजिरी लगानेवाले भी ईर्ष्या एवं लालच का संवरण नहीं कर पाते हैं, तो यह धर्म का दोष नहीं हो सकता है. उसी तरह राजनीति करनेवाले अगर भ्रष्ट या अनैतिक आचरण करते हैं, तो इससे राजनीति की मौलिकता प्रभावित नहीं होती.
आज एक ओर धार्मिक आश्रम एवं आध्यात्मिक केंद्र अय्याशी एवं कुकर्मों के अड्डे बनने लगे हैं, वहीं दूसरी ओर मजहबी इदारे आतंकवाद एवं अलगाववाद के पनाहगाह के रूप में परिवर्तित होते जा रहे हैं. यह सब धर्म या पंथ को प्रशंसित नहीं, बल्कि कलंकित करने के कृत्य हैं, जो सर्वथा निंदनीय हैं. आवश्यकता इस बात की है कि धर्म हो या राजनीति, इसके दूषणकारी तत्वों की पहचान कर इन्हें अलग-थलग करने की कोशिश हो.
धर्म और राजनीति दोनों अपने आप में अक्षुण्ण विषय हैं. हर नागरिक का कर्त्तव्य है कि अनुकरणीय आचरणों से वह अपने धर्म को प्रशंसित करे एवं राजनीति में भी सक्रिय एवं सकारात्मक भूमिका निभाकर इसे सही दिशा में ले जाने का प्रयत्न करे. ये दोनों सहजीवी के रूप में सामाजिक गतिविधियों में स्थापित रहते हैं. इसलिए इन दोनों को न अलग करने की जरूरत है, न मिलाने की जरूरत है, बल्कि इन दोनों को दूषणकारी तत्वों एवं सोच से बचाने की जरूरत है. तभी निष्ठावान व्यक्ति एवं सुसंस्कृत समाज का निर्माण संभव हो सकेगा.

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