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जल संकट के प्रति गंभीर प्रयास हों

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in हालत यह है कि गर्मी ने अभी दस्तक भर दी है और हमारे गांव, कस्बे और शहर पानी की कमी से जूझने शुरू हो गये हैं. अभी मई और जून की गर्मी बाकी है और कुएं और सामान्य चापाकल सूखने लग गये हैं. आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
हालत यह है कि गर्मी ने अभी दस्तक भर दी है और हमारे गांव, कस्बे और शहर पानी की कमी से जूझने शुरू हो गये हैं. अभी मई और जून की गर्मी बाकी है और कुएं और सामान्य चापाकल सूखने लग गये हैं.
आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु और तेलंगाना के कई हिस्सों में जल संकट शुरू हो गया है. बिहार के 19 जिलों बेगूसराय, भोजपुर, बक्सर, पूर्वी चंपारण, गया, गोपालगंज, जहानाबाद, कटिहार, मधेपुरा, मुजफ्फरपुर, नालंदा, नवादा, पटना, पूर्णिया, समस्तीपुर, सारण, सीतामढ़ी, सीवान और वैशाली के 102 ब्लॉक क्रिटिकल जोन में हैं, जबकि उत्तर बिहार में नदियों का जाल है. गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, कमला, कमला बलान, बाया, अधवारा समूह आदि कई नदियां हैं. गंगा नदी बिहार को दो हिस्सों में बांटती है. पूर्वी बिहार में कोसी नदी बहती है. दक्षिण बिहार में सोन, पुनपुन आदि हैं, लेकिन नदियों के किनारे के इलाके भी गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं.
बारिश की कमी भी समस्या की एक बड़ी वजह है. मौसम विभाग के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में पिछले 13 वर्षों से औसत बारिश 800 मिमी से थोड़ी अधिक हो रही है. वहीं, डेढ़ दशक पहले बिहार में 1200 से 1500 मिमी बारिश होती थी. बारिश में कमी होने से सिंचाई व पेयजल के लिए ग्राउंड वाटर पर निर्भरता बढ़ी है. साथ ही कम बारिश होने से जमीन के अंदर कम पानी जा रहा है. ऐसे में जमीन के नीचे से जितनी मात्रा में पानी निकाला जा रहा है, उतनी मात्रा में उसकी भरपाई नहीं हो पा रही है. कमोबेश यही स्थिति झारखंड की भी है.
कम बारिश की तो एक समस्या है ही, जल संरक्षण की कमी इसकी दूसरी बड़ी वजह है. हमने अपने तालाबों को पाट दिया है. महज 20 साल पहले तक बिहार में लगभग ढाई लाख तालाब हुआ करते थे, पर आज इनकी संख्या 93 हजार रह गयी है. शहरों के तालाबों पर भूमाफियाओं की काली नजर पड़ गयी.
एक झटके में डेढ़ लाख के अधिक तालाब काल कलवित हो गये. उनके स्थान पर इमारतें खड़ी हो गयीं. तालाबों के शहर माने जाने वाले बिहार के दरभंगा का उदाहरण इस स्थिति की गंभीरता को समझने के लिए काफी है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 1964 में जिले में नदियों की 29 धाराएं जीवंत थी, इनमें से अब सिर्फ 13 ही बची हैं. नगर में 364 तालाबों का उस समय अस्तित्व था.
अब इनकी संख्या घट कर लगभग 90 रह गयी है यानी 55 साल में नदियों की 16 धाराएं विलुप्त हो गयीं और 274 तालाब गायब हो गये. इन्हें भर दिया गया और अधिकतर पर मकान बन गये. चार दशक पूर्व दरभंगा जिले में 12141 हेक्टेयर में मोइन व तालाब था. अब क्षेत्रफल घट कर 3924 हेक्टेयर रह गया है. उस समय जिले में 1623 सरकारी व 2301 निजी तालाब चिह्नित किये गये थे. इसकी संख्या में भी काफी गिरावट आयी है. जल संरक्षण के इन स्थलों के समाप्त हो जाने से जिले में भूजलस्तर काफी नीचे चला गया है.
अब हालत यह है कि दरभंगा में सामान्य चापाकलों से पानी नहीं निकल रहा है. लोग समरसेबुल पंप लगा रहे हैं, जिससे भूजल का दोहन हो रहा है, लेकिन ऐसा कब तक चलेगा. भूजल का स्तर लगातार नीचे जायेगा और फिर जल संकट और गंभीर होगा. कमोबेश यही स्थिति अन्य शहरों की भी है.
झारखंड की मिसाल लें, तो यहां साल में औसतन 1400 मिलीमीटर बारिश होती है. यह किसी भी पैमाने पर अच्छी बारिश मानी जायेगी, लेकिन बारिश का पानी बह कर निकल जाता है, उसके संचयन का कोई उपाय नहीं है.
इसे चेक डैम अथवा तालाबों के जरिये रोक लिया जाये, तो सालभर खेती और पीने के पानी की समस्या नहीं होगी. दरअसल, हमने जल संरक्षण के पारंपरिक तौर तरीकों को धीरे-धीरे भुला दिया है और कंक्रीट के जंगल खड़े करते गये है. दूसरी ओर, अंधाधुंध तरीके से भूजल का दोहन करते जा रहे हैं. तालाब, पोखर, आहर आदि पारंपरिक जलस्रोत न केवल वर्षा के पानी का भंडारण करते थे, बल्कि इनसे भूजल का स्रोत भी रिचार्ज होता था, लेकिन तालाब लोगों की भौतिकवादी आकांक्षाओं की भेंट चढ़ गये. दिक्कत यह है कि किसी विषय के बारे में हम तभी सोचते हैं, जब समस्या हमारे सिर पर आ खड़ी होती है.
हम लोग गांवों में जल संरक्षण के उपाय करते थे, वे भी हमने करने छोड़ दिये हैं. पर्यावरणविद दिवंगत अनुपम मिश्र ने तालाबों पर भारी काम किया. उनका मानना था कि जल संकट प्राकृतिक नहीं मानवीय है. हमारे देश में बस्तियों के आसपास जलाशय- तालाब, पोखर आदि बनाये जाते थे. जल को सुरक्षित रखने की व्यवस्था की जाती थी. यह काम पूरे देश में प्रकृति के अनुकूल किया जाता था, लेकिन हमने तालाब मिटा दिये और जल संरक्षण का काम छोड़ दिया.
दरअसल, स्थिति की गंभीरता का एहसास हमें नहीं है. भूजल विशेषज्ञों का मानना है कि 2030 तक पीने के पानी की मांग और आपूर्ति में भारी अंतर हो जायेगा. अगर देश की जल व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया गया, तो ज्यादातर बड़े शहरों में 2020 तक पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं होगा. नीति आयोग की जून, 2018 में प्रकाशित जल प्रबंधन सूचकांक की रिपोर्ट कहती है कि 2020 तक बेंगलुरु, दिल्ली, चेन्नई और हैदराबाद सहित 21 शहरों में भूजल में भारी कमी आयेगी, जिससे 10 करोड़ लोग प्रभावित होंगे.
इस सूचकांक के अनुसार, जलसंकट से लगभग 60 करोड़ भारतीयों प्रभावित होंगे. बारिश के कम होने के कारण देश के जलाशयों में पानी पहले से ही कम है. देशभर के 91 प्रमुख जलाशयों में मौजूदा जल स्तर में पांच महीने में 22 मार्च, 2019 तक 32 प्रतिशत की कमी आयी है. वहीं, दक्षिणी राज्यों के 31 जलाशयों का जल स्तर पांच महीने में 36 प्रतिशत नीचे आ गया है.
दक्षिणी राज्यों के 31 जलाशयों में उसकी कुल क्षमता का 25 प्रतिशत ही जल उपलब्ध है, जबकि बीते वर्ष नवंबर में यह क्षमता 61 प्रतिशत थी. कुछ समय पहले ब्रिटिश मौसम विज्ञानियों ने चेताया था कि अगले पांच साल पिछले 150 वर्षों के मुकाबले सर्वाधिक गर्म रहेंगे. दुनिया में तापमान में तेजी से वृद्धि होगी और औसत वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री तक की वृद्धि का अनुमान है. भारतीय मौसम वैज्ञानिकों ने भी इस बार भारी गर्मी की भविष्यवाणी की है.
तापमान बढ़ने का सीधा असर खेती-किसानी पर पड़ेगा और पैदावार कम हो जायेगी. कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि देश का एक डिग्री तापमान बढ़ने से गेहूं, सोयाबीन, सरसों, मूंगफली और आलू की पैदावार में 3 से 7 फीसदी की कमी आ जायेगी. यह जान लीजिए कि जल संरक्षण सीधे तौर से खाद्य सुरक्षा से जुड़ा है. इसलिए इसकी अनदेखी की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

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