कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
kp_faizabad@yahoo.com
अगर आप मतदाता हैं और देश के करोड़ों लोगों की तरह इस जोर-शोर से प्रचारित लोकतांत्रिक मिथ के शिकार हंै कि लोकसभा चुनाव में हर मतदाता के मत का मूल्य समान और नयी लोकसभा के गठन में उसकी एक जैसी हिस्सेदारी या भूमिका होती है, तो अपनी यह गलतफहमी दूर कर लीजिये, क्योंकि यह सिर्फ और सिर्फ मिथ है और इसका सच्चाई से कतई कोई वास्ता नहीं है!
अगर आप देश के सबसे छोटे लोकसभा क्षेत्र लक्षदीप के मतदाता हैं, तो तेलंगाना स्थित सबसे बड़े क्षेत्र मलकाज गिरि के मतदाताओं के मुकाबले आपके मत का मूल्य 63 गुना ज्यादा है, क्योंकि लक्षदीप में जहां केवल 49,922 मतदाता एक सांसद चुनकर लोकसभा में अपना एक मत पक्का कर लेते हैं, वहीं मलकाज गिरि के 31,83,325 मतदाताओं के पास भी लोकसभा में कुल मिलाकर एक ही मत है.
मतों के मूल्य में यह असंतुलन तब है, जब इसे दूर करने के नाम पर ही 2009 के आम चुनाव से पहले लोकसभा क्षेत्रों का नया परिसीमन कराया गया था.
परिसीमन का आधार 2001 की जनगणना से हासिल आंकड़ा था. फलस्वरूप असंतुलन कुछ कम तो हुआ, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुआ. साल 2004 के आम चुनाव तक लक्षदीप देश का सबसे छोटा और बाहरी दिल्ली सबसे बड़ा संसदीय क्षेत्र था और दोनों के मतदाताओं के मतों के मूल्य में 86 गुना का अंतर था.
इस असंतुलन के कई अनर्थ हैंै. कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ परोक्ष. मसलन, लोकसभा के गठन में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की हिस्सेदारी 16.49 प्रतिशत है, तो महाराष्ट्र के मतदाताओं की 9.69 प्रतिशत. इसी क्रम में पश्चिम बंगाल के मतदाताओं की भागीदारी 7.67, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना के मतदाताओं की 7.66, बिहार के मतदाताओं की 7.62, तमिलनाडु के मतदाताओं की 6.66, मध्य प्रदेश के मतदाताओं की 5.84, कर्नाटक के मतदाताओं की 5.49, राजस्थान के मतदाताओं की 5.22 और गुजरात के मतदाताओं की 4.89 प्रतिशत भागीदारी है.
इस बात को गुणांकों के हिसाब से समझना चाहें, तो दिल्ली के मतदाताओं का गुणांक जहां 0.83 है, वहीं अरुणाचल प्रदेश के मतदाताओं का गुणांक 4.38 है. गुणांक एक से कम होने का मतलब है कि लोकसभा में संबंधित राज्य के मतदाताओं का प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय औसत से कम है और एक से ज्यादा होने का अर्थ यह कि उसे राष्ट्रीय औसत से ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है.
नियमों के मुताबिक किसी भी लोकसभा क्षेत्र का फैलाव दो राज्यों में नहीं हो सकता, इस कारण भी कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लोकसभा क्षेत्र मतदाताओं की संख्या के लिहाज से काफी छोटे हैं, जबकि कई अन्य बहुत बड़े.
परिसीमन में एक गड़बड़ यह हुई कि इसका ध्यान नहीं रखा गया कि कई बार राज्यों की जनसंख्या दूसरे राज्यों से आनेवाले लोगों के कारण भी बढ़ती है. दिल्ली, महाराष्ट्र और कर्नाटक में देश के सबसे बड़े तीन महानगर हैं और उनकी जनसंख्या बढ़ती जाने का सबसे बड़ा कारण अन्य राज्यों से आनेवाला जनप्रवाह ही है.
मतदाताओं की संख्या को आधार न बनाये जाने से हालत यह हो गयी है कि कुछ राज्यों में मतदाताओं की संख्या के अनुपात में जितनी लोकसभा सीटें होनी चाहिए, नहीं हैं. इस कारण मतों के मूल्य की समानता स्थापित नहीं हो पा रही है.
प्रत्येक लोकसभा सीट के मतदाताओं की संख्या के 2014 के राष्ट्रीय औसत 13.5 लाख को आधार बनायें, तो तमिलनाडु की कुल लोकसभा सीटें 39 से घटकर 31 हो जायेंगी, जबकि उत्तर प्रदेश की अस्सी सीटें बढ़ाकर 88 करनी पड़ेंगी. इसी तरह महाराष्ट्र की सीटें 48 से बढ़ाकर 55 करनी होंगी, कर्नाटक की 25 से बढ़ाकर 28, गुजरात की 26 से बढ़ाकर 28, छत्तीसगढ़ की 11 से बढ़ाकर 12 और दिल्ली की सात से बढ़ाकर आठ, जबकि पश्चिम बंगाल की 42 से घटाकर 40, केरल की 20 से घटाकर 17, असम की 14 से घटाकर 13, जम्मू कश्मीर की छह से घटाकर पांच, हरियाणा की दस से घटाकर नौ, हिमाचल की चार से घटाकर तीन और उत्तराखंड की पांच से घटाकर चार. अलबत्ता, पंजाब और मध्य प्रदेश दो ऐसे राज्य बचते हैं, जिनकी लोकसभा सीटें फिर भी यथावत बनी रहेंगी.
देश के लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिए जरूरी है कि मतों के मूल्यों में यह असमानता को जितनी जल्दी संभव हो, खत्म कर दिया जाये. लेकिन, प्रश्न है कि इसकी उम्मीद भी भला कैसे की जाये.
आप मतों के मूल्य में इस गड़बड़ी को जानकर क्षुब्ध हो रहे हैं, तो यह भी जानिये कि देश के लोकतंत्र की यह विडंबना इकलौती नहीं है. इधर दि इरीटेटेड इंडियंस की ओर से एक मैसेज वायरल हो रहा है, जिसमें कहा गया है कि इस लोकतंत्र में राजनेता अपनी पसंद की दो सीटों से चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन मतदाता अपनी पसंद की दो सीटों तो क्या एक ही सीट की दो जगहों पर भी वोट नहीं दे सकते. जेल में बंद तो वोट नहीं दे सकते, लेकिन नेता जेल में रहकर भी चुनाव लड़ सकते हैं.
अगर आप कभी किसी एक मामले में भी जेल हो आये हैं, तो कोई सरकारी नौकरी नहीं पा सकते, लेकिन नेता कितनी बार भी जेल हो आये हों, वे प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री क्या, राष्ट्रपति भी बन सकते हैं.
ऐसे में कोई तो बताये कि यह लोकतंत्र जनता का है या नेताओं का और क्या इसके सिस्टम को बदलने की जरूरत नहीं है? अगर है तो उसका मुहूर्त कब आयेगा?