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ऐसे आ सकते हैं कांग्रेस के अच्छे दिन

सुरेंद्र किशोर वरिष्ठ पत्रकार surendarkishore@gmail.com जीवनभर कांग्रेस के विरोधी रहे समाजवादी नेता मधु लिमये ने अपने आखिरी दिनों में कहा था कि ‘सुधरी हुई कांग्रेस ही विविधताओं से भरे इस देश को बेहतर ढंग से चला सकती है.’ गैर-कांग्रेसी दलों की खिचड़ी सरकारों के कामों को नजदीक से देखने के बाद लिमये इस नतीजे पर […]

सुरेंद्र किशोर
वरिष्ठ पत्रकार
surendarkishore@gmail.com
जीवनभर कांग्रेस के विरोधी रहे समाजवादी नेता मधु लिमये ने अपने आखिरी दिनों में कहा था कि ‘सुधरी हुई कांग्रेस ही विविधताओं से भरे इस देश को बेहतर ढंग से चला सकती है.’ गैर-कांग्रेसी दलों की खिचड़ी सरकारों के कामों को नजदीक से देखने के बाद लिमये इस नतीजे पर पहुंचे थे.
उनका मानना था कि ‘मध्यमार्गी पार्टी कांग्रेस के कार्यकर्ता देशभर में हैं. वह सभी समुदायों को भरसक अपने साथ बांधकर रख सकती है. यह गुण न तो क्षेत्रीय दलों में है और न ही भाजपा में.’ मधु लिमये का यह सपना पूरा नहीं हुआ, तो इसके लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार है.
अब देश को चलाने की बात कौन कहे, कांग्रेस पार्टी में प्रतिपक्ष को चलाने की भी क्षमता नहीं बची. प्रतिपक्षी दल इससे दूर भाग रहे हैं. उधर इस बीच भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर ‘सबका साथ सबका विकास’ करने की कोशिश की है. देश और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि भाजपा के मुकाबले स्वस्थ व मजबूत प्रतिपक्ष नहीं है. वैसे अधिकतर क्षेत्रीय दल घोर जातिवाद, वंशवाद और पैसावाद के आरोपों से सने हैं.
कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो क्षेत्रीय दल भी कांग्रेस को अपने साथ लेने को तैयार नहीं हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि उन्हें कांग्रेस एक कमजोर पार्टी नजर आ रही है. उन्हें कांग्रेस मददगार के बदले बोझ लग रही है. यहां तक कि जिन उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस कभी काफी ताकतवर थी, वहां भी क्षेत्रीय दलों के सामने वह निरीह बन चुकी है. इसके लिए खुद कांग्रेस ही अधिक जिम्मेदार रही है.
इसलिए फिर से ताकतवर बनने के लिए उसे ही खुद को बदलना होगा. पर क्या बदलने की ताकत भी कांग्रेस में अब बची हुई है? कई बार अपनी ताकत न भी हो, तो सत्ताधारी दल की विफलताओं का लाभ प्रतिपक्ष को मिल जाता है. लेकिन, उस लाभ को बनाये रखने के लिए तो खुद उसे ही प्रयास करना पड़ता है.
साल 2014 में केंद्र में राजग के सत्ता में आने के लिए खुद राजग या नरेंद्र मोदी को 40 प्रतिशत ही श्रेय जाता है. बाकी 60 प्रतिशत लाभ तो उन्हें मनमोहन सरकार की विफलताओं के कारण मिला. यहां तक कि हाल में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता के पीछे भी भाजपा सरकारों की विफलताएं ही अधिक थीं.
इस पृष्ठभूमि में मौजूदा लोकसभा चुनाव के बाद शायद कांग्रेस नेतृत्व को आत्मनिरीक्षण करने का अवसर मिल सकता है, यदि वह चाहे. देश में स्वस्थ लोकतंत्र के विकास के लिए उसे ऐसा करना ही चाहिए. बेहतर होता कि एक खास परिवार के बदले कुछ समझदार, राष्ट्रहित चिंतक व ईमानदार कांग्रेसियों की वर्किंग कमेटी, पार्टी को निर्देशित करती.
इस बीच कांग्रेस के लिए यह जान लेना जरूरी है कि 1984 के बाद से ही कांग्रेस लगातार निरीह क्यों होती चली गयी. हालांकि, उसका बीजारोपण पहले ही हो चुका था. यदि कांग्रेस ने सबका साथ लेकर सबके विकास की चिंता आजादी के बाद से ही की होती, तो आज उसे यह दिन नहीं देखना पड़ता.
आज के अधिकतर जाति आधारित क्षेत्रीय दल इस बहाने खड़े हुए और ताकतवर बने, क्योंकि कांग्रेस ने उनकी जातियों के साथ न्याय नहीं किया. न्याय का सबसे बड़ा आधार आरक्षण हो सकता था. भारतीय संविधान के अनुच्छेद-340 में सामाजिक न्याय का प्रावधान भी किया गया.
पर, कांग्रेस ने लगातार उसका विरोध किया. साल 1990 में जब वीपी सिंह सरकार ने मंडल आरक्षण लागू किया, तो कांग्रेस ने कई बहाने से उसका विरोध किया.यानी समर्थन नहीं किया. राममंदिर पर भी कांग्रेस की ढुलमुल नीति के चलते कांग्रेस का जन समर्थन काफी घट गया. उसके बाद कभी उसे लोक सभा में बहुमत नहीं मिल सका.
आजादी के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में जब-जब कांग्रेस को विधानसभाओं में पूर्ण बहुमत मिला, उसने सिर्फ सवर्णों को ही मुख्यमंत्री बनाया. जबकि, ये राज्य पिछड़ा बहुल हैं.
कांग्रेस के पास पिछड़ों में शालीन नेता भी थे, लेकिन जब पिछड़े राज्यों में राजनीति की बागडोर गैर-कांग्रेसी ताकतों के हाथों में चली गयी, तो कांग्रेस ने पिछड़ों के बीच से ऐसे नेताओं को उभारा, जो ‘पिछड़ों के साथ हुए अन्याय का सूद सहित बदला’ ले सकें. अब स्थिति यह है कि कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश में मात्र 6.2 प्रतिशत और बिहार में मात्र 6.7 प्रतिशत वोट ही बच गये हैं. इसके बावजूद मनमोहन सरकार ने दस साल तक कुछ ऐसे विवादास्पद काम किये, जिनसे भाजपा व खासकर नरेंद्र मोदी को राजनीतिक लाभ मिला. हालांकि मनमोहन के कुछ काम अच्छे भी थे.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद गठित एके एंटोनी कमेटी ने अपनी रपट में कहा था कि ‘कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर से लोगों का विश्वास उठ रहा है और वे मानते हैं कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण में लगी हुई है.’
एंटोनी की रपट के अलावा कांग्रेस के कमजोर होने में उसके घोटालों की खबरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. इन दो तत्वांे के संबंध में अपनी राह बदलकर कांग्रेस अब भी भाजपा को कमजोर कर सकती है. पर फिलहाल इसके संकेत नहीं हैं. इस लोकसभा चुनाव के बाद शायद कांग्रेस इन मुद्दों पर चिंतन करे.
पिछले दिनों भारत-पाक द्वंद्व और बालाकोट प्रकरण के बाद कई प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के जो बयान आये, उनसे तो यही लगता है कि कांग्रेेस अपनी पिछली गलतियों से कोई सबक लेने को तैयार नहीं है. उत्तर प्रदेश में तो सपा-बसपा ने कांग्रेस को पूरी तरह अलग-थलग कर ही दिया, पर बिहार में राजद ने कुछ सीटें जरूर कांग्रेस के लिए छोड़ी हैं.
कांग्रेस ने 1999 में राष्ट्रपति शासन का राज्यसभा में विरोध करके भंग राबड़ी सरकार को वापस करवा दिया था. साथ ही साल 2000 के विधानसभा चुनाव में जब राजद को बहुमत नहीं मिला, तो कांग्रेस ने राजद से मिलकर सरकार बना ली. इससे कांग्रेस की एक ऐसी पार्टी की छवि बन गयी, जो राजद की छवि से बहुत अलग नहीं थी. उसका भारी नुकसान कांग्रेस को हुआ.
कांग्रेस यह कहती रही कि ‘सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता में आने से रोकने के लिए’ हम लालू-राबड़ी सरकार को बाहर-भीतर से समर्थन देते हैं. पर, इस विधि से कांग्रेस न तो भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकी और न ही अपनी खुद की राजनीतिक ताकत बनाये रख सकी.
इन सबके बावजूद अब भी यदि कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व घोटालों के प्रति खुद में नफरत पैदा करे और स्वस्थ व संतुलित धर्मनिरपेक्षता की राह पर चले, तो एक बार फिर कांग्रेस के अच्छे दिन आ ही सकते हैं.

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