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नीति निर्धारण में जनभागीदारी
मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com जनतंत्र का नया दौर आनेवाला है. इस नये दौर में सरकारों को नीति-निर्धारण में जनभागीदारी सुनिश्चित करनी होगी. केवल पांच साल में एक बार चुनी हुई सरकार से अब काम नहीं चलनेवाला है. जनतंत्र के लिए एक निश्चित अंतराल पर निष्पक्ष चुनाव, सभी वयस्क नागरिक को मतदान का […]
मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
जनतंत्र का नया दौर आनेवाला है. इस नये दौर में सरकारों को नीति-निर्धारण में जनभागीदारी सुनिश्चित करनी होगी. केवल पांच साल में एक बार चुनी हुई सरकार से अब काम नहीं चलनेवाला है. जनतंत्र के लिए एक निश्चित अंतराल पर निष्पक्ष चुनाव, सभी वयस्क नागरिक को मतदान का अधिकार आवश्यक शर्त तो है, लेकिन इसे यथेष्ट नहीं कहा जा सकता है.
इस बात को राजनीतिक दलों और सरकारों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए, अन्यथा नीतियों को शांतिपूर्वक लागू करना संभव नहीं है. सरकारों को यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि उनके चुनाव से उन्हें केवल एक ट्रस्टी बनाया गया है और संविधान के अनुसार उन्हें काम करने की जरूरत है.
जनभावनाओं को जानने का एकमात्र उपाय चुनाव नहीं हो सकता है. दरअसल, आधुनिक जनतंत्र इस सिद्धांत पर टिका है कि कोई एक व्यक्ति बहुत से लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकता है. एक बार लोग अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं, तो उनका निर्णय लेने का अधिकार उस एक व्यक्ति को हस्तांतरित हो जाता है.
अब उसका दायित्व है कि उसके निर्णयों में लोगों का मत परिलक्षित हो. शायद पहले यह संभव था, क्योंकि लोगों की समस्याएं एक जैसी होती थीं और लोग अपनी समस्याओं को लेकर कम जागरूक थे. अब समय बदल गया है. विकास के क्रम में समाज में अनेक समूह बन गये हैं या यूं कहें कि अनेक समूह मुखर हो गये हैं. चुनाव के दौरान कुछ मुद्दे ही प्रमुख हो जाते हैं.
हो सकता है कि ये मुद्दे बहुत महत्वपूर्ण न भी हों, लेकिन मीडिया और दलों के आपसी ताल-मेल से उन्हें ज्यादा महत्व मिल जाये और मतदाता उसे महत्वपूर्ण मान कर मतदान कर दें. लेकिन, चुनाव के बाद सामान्य स्थिति में लोगों की अपनी समस्याएं ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती हैं. यह भी संभव है कि जनप्रतिनिधियों की उनमें कोई रुचि न हो. सामान्य तौर पर यदि प्रतिनिधित्व का सिद्धांत सही काम करता, तो ऐसा नहीं होता.
लेकिन, सच यह है कि किसी तरह चुनाव जीत लेने के बाद जनप्रतिनिधि स्वार्थ रंजित हो जाते हैं और पूंजीपतियों, ठेकेदारों, नौकरशाहों से ज्यादा नजदीक हो जाते हैं. यही कारण है कि चुनाव के तुरंत बाद ही लोगों में असंतोष फैलने लगता है, जो धीरे-धीरे आंदोलन का रूप लेने लगता है. फिर सरकार उसे दबाने की कोशिश में लग जाती है.
जनतंत्र का यह स्वरूप बहुत दिनों तक चलनेवाला नहीं है. क्योंकि इन आंदोलनों को दबाने के लिए सरकारें बल प्रयोग करती हैं. इसलिए अब समय आ गया है कि प्रतिनिधित्व की समझ और तौर-तरीके में भी बदलाव लाया जाये. समस्याओं के आधार पर एकजुट हुई जनता के साथ सरकारों का सीधा संवाद होना जरूरी है. व्यवस्था में कुछ इस तरह का परिवर्तन लाना चाहिए, ताकि नीति-निर्धारण केवल जनप्रतिनिधियों पर निर्भर न करे, बल्कि प्रभावित जनता की भी उसमें हिस्सेदारी हो.
इस तरह की हिस्सेदारी के कई सफल प्रयोग दुनिया में हुए हैं. ब्राजील के समाजवादी सरकार ने इसी मॉडल पर बजट बनाने का प्रयोग किया था, जो काफी सफल रहा था. दिल्ली में भागीदारी योजना के तहत नीति-निर्धारण में शहर के आवासीय संघों को हिस्सेदारी के लिए आमंत्रित किया गया था. इस तरह की भागीदारी से विकास के मुद्दे तो सामने आते ही हैं, जनसहमति के कारण काम भी आसानी से होता है.
इसी तरह की भागीदारी की व्यवस्था छात्रों और किसानों के साथ भी होनी चाहिए. नयी आर्थिक नीति से सबसे ज्यादा प्रभावित ये दोनों वर्ग ही हैं. हाल में देश की राजधानी में इन दोनों समूहों के द्वारा किये गये विशाल प्रदर्शन से साबित होता है कि इनके लिए बनायी जा रही सरकारी नीतियों से इनमें बेहद असंतोष है. बिहार के सीमांचाल क्षेत्र के किसानों को ही लें. पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में मक्के की उपज में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है. इसके साथ ही नयी समस्याएं भी पैदा हो गयी हैं.
मक्के में काफी पूंजी की जरूरत होती है, जिसके लिए किसान कर्ज लेते हैं. इस इलाके में बड़े पैमाने पर गोदामों का निर्माण हुआ है. लेकिन इसका फायदा केवल बिचौलियों को होता है. इस बार किसानों को तो नौ सौ से हजार-बारह सौ रुपये तक में फसल बेचनी पड़ी, जबकि अभी मक्के की कीमत लगभग दो हजार प्रति क्विंटल है. ऐसे में लागत तो बढ़ जाती है, क्योंकि मजदूरी और खाद की कीमत बढ़ जाती है. किसान अच्छी कीमत मिलने की उम्मीद में उधार लेकर पूंजी लगा देता है.
लेकिन, फसल काटने पर कीमत गिर जाती है. सरकार को किसानों से संवाद कर लागत को कम करने, कम ब्याज दर पर उचित कर्ज मुहैया करने के साथ-साथ सही कीमत पर सरकारी खरीद की व्यवस्था करनी चाहिए. जिस तरह धान की खरीद के लिए कृषक सहकारिता संगठनों की मदद ली जाती है, मक्के के लिए भी ऐसी व्यवस्था बने.
किसानों की कर्जमाफी पर भी इसी तरह व्यापक संवाद की जरूरत है. यह समझना जरूरी है कि किसानों की सही आवश्यकता क्या है और उन्हें कर्ज में डूबने की आवश्यकता क्यों पड़ती है? यदि लागत को नियंत्रण में रखा जाये और फसल की सही कीमत सही समय पर मिल जाये, तो शायद कर्जमाफी की जरूरत ही न पड़े.
इसी तरह यदि सरकार किसी क्षेत्र में बांध बनाने की योजना बनाये, तो सबसे पहले जिसके फायदे की उम्मीद से इसे बनाया जाना है, उनसे संवाद कर ले. कई बार सरकारी योजनाओं के बनानेवालों को इसके सभी आयामों का अंदाजा नहीं होता है, फिर सरकारी पैसे का अपव्यय हो जाता है. जिसके फायदे में सोच कर इसे बनाया गया था, उनके ही लिए यह अभिशाप हो जाता है.
ऐसी ही एक समस्या युवाओं की है. केंद्रीय या राज्य सरकारों के पास कोई ठोस युवा नीति ही नहीं है. कभी छात्रों से यह पूछा ही नहीं जाता है कि विश्वविद्यालयों में उनकी क्या समस्या है.
उनकी रोजगार की समस्या पर उनसे कभी कोई सरकार संवाद ही नहीं करती है. यदि शिक्षा हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, तो क्या यह राज्य का दायित्व नहीं है कि हर युवा को उसकी योग्यता के आधार पर शिक्षा मिल सके? उसकी जाति, उसका धर्म या उसकी आर्थिक बदहाली उसके रास्ते में बाधक न हो. भारत की विशाल युवा जनसंख्या को यदि हम शिक्षा और रोजगार नहीं दे पाये, तो इस जनतंत्र की हम रक्षा भी नहीं कर पायेंगे.
यह तय है कि इन समस्याओं का समाधान आसान नहीं है, लेकिन जनतंत्र की खासियत यही है कि समस्याओं का समाधान जनसहयोग से निकाला जाये, तो बेहतर. प्रतिनिधित्व मात्र से जनतंत्र नहीं सफल हो सकता है, जनभागीदारी भी बहुत आवश्यक है.
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