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परंपराएं हैं जीवित जिनसे

कविता विकास लेखिका सावन के महीने में जिन यात्रियों की सबसे ज्यादा भीड़ आप बस स्टैंड या रेलवे स्टेशनों पर देखेंगे, वह होगी कांवरियों की. शिव पर सावन मास में जल ढालने की आस्था इतनी गहरी है कि हर उम्र के वयस्क गंगा जल लिये मीलों की लंबी यात्राएं करते दिख जायेंगे. फिर भी उनके […]

कविता विकास

लेखिका

सावन के महीने में जिन यात्रियों की सबसे ज्यादा भीड़ आप बस स्टैंड या रेलवे स्टेशनों पर देखेंगे, वह होगी कांवरियों की. शिव पर सावन मास में जल ढालने की आस्था इतनी गहरी है कि हर उम्र के वयस्क गंगा जल लिये मीलों की लंबी यात्राएं करते दिख जायेंगे. फिर भी उनके चेहरे पर कोई थकान, कोई परेशानी नहीं दिखती. परंपराएं इन्हीं आस्थावानों के कारण जीवित हैं.

संभ्रांत वर्ग तो भीड़-भाड़ के चलते या तो निकलते ही नहीं, या निकलते भी हैं, तो वीआईपी सुविधाओं का लाभ उठा अलग पड़े रहते हैं. मध्यवर्गीय परिवार आज भी रिश्तों और पारिवारिक मूल्यों के धागे में इस कदर लिपटा है कि वह अपने लिए ही नहीं, बल्कि अपने दोस्त-यार, सगे-संबंधियों के लिए भी मंगलकामना करता है और उससे जुड़े सारे विधि-विधान करता है. अनेक विधियां तो पाखंड और अंधविश्वास की जड़ हैं, पर उनसे उनकी आस्था जुड़ी है.

आज लोग आधुनिकता की चादर तले स्व-केंद्रित होकर रहना अपनी शान समझते हैं. उनकी धार्मिक यात्राएं भी उन्हीं स्थानों की होती है, जहां हेलीकाॅप्टर की पहुंच है. ऐसा करना उनकी सामाजिक मर्यादा में इजाफा करता है.

परंतु ग्रामीण और उप-नगरीय क्षेत्रों के लोगों के उत्सवों में मेला, नौटंकी और जात्रा जैसे पारंपरिक अवसर आज भी विशेष स्थान रखते हैं. नये कपड़े पहनना, मेले-ठेले में जलेबियों का स्वाद लेना, चाट-पकौड़ियों के चटखारे लेना इनकी खुशियों में शामिल हैं.

मेले की रौनक इनसे ही है वरन शहरों में तो मल्टीप्लेक्स और मॉल ही खाली समय को भुनाने के लिए काफी हैं. आज के बच्चों से कोई पूछे कि क्या उन्होंने गुड्डे-गुड़ियों के खेल खेले हैं, बंदर का नाच देखा है? मिट्टी के खिलौने, चूड़ी-माला की दुकानें, बांस की सजावटी चीजें, अंधे कुएं में मोटर साइकिल के रोंगटे खड़े कर देनेवाले करतब आदि कई ऐसे हुनर हैं, जिनको शहरों में कोई अहमियत नहीं मिलती, पर ग्रामीण परिवेश इनके लिए अब भी अपनी अस्मिता बनाये हुए हैं.

उनके लिए लोगों के मन में जो आकर्षण है, वही तो इनकी जीविका का साधन है. भारत जैसे विशाल देश की संस्कृति के पोषक हैं ये परंपरावादी लोग. वन-प्रदत्त सामान जो राजधानी के बड़े बाजारों में अपने वास्तविक मूल्य से दोगुने-तिगुने दामों में बेचे जाते हैं, वे विदेशियों की पहली पसंद होते हैं, लेकिन इनके असली स्वामी इस सच्चाई और इस लाभ से महरूम होते हैं.

अब जब सावन अपने पूरे शबाब के साथ उतर आया है, कांवड़िये महादेव के चरणों में सर्व-कल्याण हेतु नतमस्तक होने निकल पड़े हैं, तो मनाइए कि वे निर्विघ्न अपनी यात्रा समाप्त कर कुशल लौट जाएं. राह की बाधाओं से उनकी हिम्मत न टूटे.

सड़कों के किनारे हर धर्म के लोग अपनी सजी हुई दुकानों में उन्हें पानी पिलाते हैं, फल-दूध का वितरण करते हैं और उनकी हर सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं. भाईचारा का प्रतीक यह सावनी यात्रा सदियों से चली आ रही है. धर्म को परे रख मात्र मानवता के धर्म को निभानेवाले ये सर्व-धर्मी हर युग में सबके लिए मिसाल बनें, यही कामना है.

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