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एक मशवराभर है फतवा

शफक महजबीन टिप्पणीकार तीन तलाक (तलाक-ए-विदअत), हलाला और बहुविवाह के खिलाफ आवाज उठानेवाली बरेली की निदा खान के खिलाफ दरगाह आला हजरत के दारुल इफ्ता द्वारा फतवा जारी किया गया था. शहर-ए-इमाम मुफ्ती खुर्शीद आलम ने निदा के इस्लामी कानून न मानने पर फतवा जारी किया. फतवे के तहत- निदा को इस्लाम से बेदखल कर […]

शफक महजबीन

टिप्पणीकार

तीन तलाक (तलाक-ए-विदअत), हलाला और बहुविवाह के खिलाफ आवाज उठानेवाली बरेली की निदा खान के खिलाफ दरगाह आला हजरत के दारुल इफ्ता द्वारा फतवा जारी किया गया था. शहर-ए-इमाम मुफ्ती खुर्शीद आलम ने निदा के इस्लामी कानून न मानने पर फतवा जारी किया. फतवे के तहत- निदा को इस्लाम से बेदखल कर दिया गया. उनके बीमार होने पर दवा उपलब्ध नहीं करायी जायेगी, उनके जनाजे में कोई शामिल नहीं होगा और उनकी मदद करनेवाले मुसलमानों को भी इस्लाम से खारिज किया जायेगा.

मेरे ख्याल में दारुल इफ्ता ने यह फतवा नहीं, बल्कि हुक्म जारी किया है. इस्लाम ऐसे किसी भी हुक्म की इजाजत नहीं देता कि किसी को जनाजे की नमाज और दवा तक से महरूम कर दिया जाये. फतवा अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ है- इस्लामी कानून के मुताबिक दिया जानेवाला मशवरा. सिर्फ एक मुफ्ती ही फतवा जारी कर सकता है, क्योंकि वह कुरान, हदीस और शरिया कानून का जानकार होता है.

किसी मसले पर कुरान और हदीस की रोशनी में मुफ्ती जो राय या हुक्म देता है, वही फतवा कहलाता है. इस फतवे काे मानना या न मानना व्यक्ति की मरजी पर निर्भर करता है. भारत में फतवा कभी भी हुक्म नहीं हो सकता, क्योंकि यहां शरिया कानून नहीं चलता. भारत का संविधान और कानून यहां के हर व्यक्ति को जीने के बुनियादी अधिकार देते हैं.

पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.स.) पर एक बूढ़ी औरत रोज कूड़ा फेंक देती थी, जब वे उस राह से गुजरते थे. कूड़ा साफ करके वे आगे बढ़ जाते थे. एक दिन औरत ने कूड़ा नहीं फेंका.

वह बीमार थी. जब दूसरे दिन भी नहीं फेंका, तब वे उसकी खैरियत पूछने उसके घर गये. इसका उस औरत पर बड़ा असर हुआ. यही इस्लाम है. नफरत करनेवाले में मुहब्बत भरने का नाम ही इस्लाम है. ऐसे में किसी औरत पर ऐसा फतवा कैसे जारी किया जा सकता है कि उसके बीमार होने पर दवा तक न मुहैया करायी जाये?

इस्लाम ने औरतों को बहुत से हकूक (अधिकार) दिये हैं. फिर ऐसा क्यों होता है कि जब भी औरतें अपने हक को पाने की बात करती हैं, तब पढ़े-लिखे और शरियत की नुमाइंदगी करनेवाले मुसलमान भी औरतों के हक के खिलाफ बातें करने लगते हैं.

अगर शरियत में औरतों के हकूक हैं, तो उन्हें देने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. और जो हकूक नहीं हैं, तो औरतों को इस पर समझाना चाहिए, न कि ऐसा गैर-इस्लामी फतवा जारी करना चाहिए. मौलाना और मर्दवादी सोच अक्सर ही औरतों को उनका हक पाने की लड़ाई नहीं लड़ने देते हैं. क्या वे यह बात नहीं जानते कि आज के शिक्षित भारत में महज फतवा जारी कर देनेभर से ही औरतों के अधिकार खत्म नहीं हो जायेंगे?

जितनी कोशिश ऐसे-वैसे फतवे देने में की जाती है, उतनी कोशिश अगर मुस्लिम लड़कियों की तालीम के लिए की जाती, तो इससे मुस्लिम समाज बहुत समृद्ध हो जाता. मुसलमानों के जितने भी धार्मिक मसले हैं, सब बिना फतवे दिये भी हल किये जा सकते हैं, बशर्ते हम अपने बेहतरीन संविधान को समझें.

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