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उपचुनाव नतीजों के संदेश
II आशुतोष चतुर्वेदी II प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in राजनीति और फुटबॉल में मुझे काफी साम्य नजर आ रहा है. फुटबॉल के महाकुंभ की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं. विश्व कप की शुरुआत में लीग मैच होते हैं, जिसमें ग्रुप की टीमों का एक दूसरे के साथ मुकाबला होता हैं. फिर आता है […]
II आशुतोष चतुर्वेदी II
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
राजनीति और फुटबॉल में मुझे काफी साम्य नजर आ रहा है. फुटबॉल के महाकुंभ की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं. विश्व कप की शुरुआत में लीग मैच होते हैं, जिसमें ग्रुप की टीमों का एक दूसरे के साथ मुकाबला होता हैं. फिर आता है नॉकआउट का दौर यानी आप हारे और प्रतियोगिता से बाहर हुए. राजनीति में भी उपचुनाव एक तरह से लीग मैच जैसे होते हैं. इनसे आपको अंदाज लगता है कि हवा का रुख क्या है. जनता जनार्दन के बीच राजनीति को लेकर कैसी खिचड़ी पक रही है.
उसके बाद आता है नॉकआउट मुकाबला यानी आम चुनाव. जिसमें हारे तो बाहर हुए. पहले होता यह था कि उपचुनाव में स्थानीय नेतृत्व की प्रमुख भूमिका होती थी, लेकिन अब खेल के नियम बदल गये हैं. प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने हर चुनाव को, अखबारनवीसों की भाषा में कहें तो सत्ता का सेमीफाइनल बना दिया है. हर चुनाव में केंद्रीय नेतृत्व की अहम भूमिका होने लगी है और उपचुनाव भी पूरी ताकत से लड़े जाते हैं.
यह सही है कि हर चुनाव राजनीति को एक नया संदेश देकर जाता है. हाल में हुए उपचुनावों से भी निकले विपक्षी एकता के संदेश को पढ़ा जा सकता है. एक और संदेश है- जो वादा किया है, वह निभाना पड़ेगा.
नरेंद्र मोदी जब सत्ता में आये थे, तो उन्होंने अनेक वादे किये थे. उन्होंने लोगों की उम्मीदों को अप्रत्याशित तौर से जगा दिया था. लोग चाहते हैं कि मोदी सरकार वादे के मुताबिक रोजगार का सृजन करे, किसानों के मुद्दों को हल करे और पेट्रोल-डीजल की कीमतों को नियंत्रित रखे. हाल में गुजरात में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को किसानों की नाराजगी झेलनी पड़ी थी, लेकिन यह जान लीजिए कि विपक्ष का मुकाबला एक ऐसे शख्स से है, जो चौंकाने वाले फैसले लेने में माहिर हैं.
यह देश का दुर्भाग्य है कि अपनी असफलताओं से सरकारें चली जाती हैं, उन्हें सत्ता से हटाने में विपक्ष की कोई अहम भूमिका नहीं होती. विपक्ष के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सड़कों पर उतरकर सरकार के खिलाफ जनमत जगाने का काम वह नहीं करता. चलिए, मान लेते हैं कि इन उपचुनावों से विपक्ष की एकता की नींव पड़ गयी, लेकिन लोगों के मन में अनेक सवाल है, अनेक आशंकाएं हैं.
विपक्षी नेताओं को उनको हल करना होगा. आम जनता का विपक्षी गठबंधनों को लेकर अनुभव बेहद खराब रहा है. लोग साफ शब्दों में कहते हैं कि सत्ता के स्वार्थ में गठबंधन तो बन जाता है, चलता नहीं है, यह टिकाऊ नहीं है.
लोगों का गैर कांग्रेसी गठबंधनों का अनुभव बहुत सुखद नहीं रहा है. विपक्षी नेताओं को जनता को यह आश्वस्त करना होगा कि उनका गठबंधन दिखावा नहीं है. दूसरा, उनका मुकाबला नरेंद्र मोदी जैसे स्थापित नेता से है. लिहाजा उन्हें विकल्प पेश करना होगा. यह कह भर देने से काम नहीं चलेगा कि बाद में नेता तय कर लेंगे. संभावित नेता अथवा नेताओं के नाम उन्हें सार्वजनिक करने होंगे, अन्यथा विपक्ष की संभावनाओं पर ग्रहण लग सकता है.
हालांकि यह भी सही है कि कई बार लोक सभा और विधानसभाओं चुनाव नतीजे उपचुनाव परिणामों के एकदम उलट आते देखे गये हैं, लेकिन अब बहुत समय नहीं बचा है. इसी साल के अंत में हिंदी पट्टी के राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं.
इसके तत्काल बाद लोकसभा चुनाव की बारी है. इस दृष्टि से मौजूदा नतीजे और महत्वपूर्ण हो जाते हैं. हिंदी पट्टी पर भाजपा का वर्चस्व है और तीनों ही राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं. सूचनाएं आ रही हैं कि वहां के लोग मौजूदा नेतृत्व से नाखुश हैं. माना जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनावों में राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा के सामने बड़ी चुनौती है. संदर्भ समझने के लिए राजस्थान के पुराने चुनाव परिणामों को जानना जरूरी है. लगभग सवा चार साल पहले राजस्थान में विधानसभा चुनाव हुए थे.
विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 200 में से 163 सीटें जीती थीं, कांग्रेस को केवल 21 सीटें मिली थीं और शेष अन्य के खाते में गयीं थीं. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राजस्थान में 25 में से 25 संसदीय सीटों पर कब्जा कर एक नया रिकॉर्ड बनाया था, लेकिन अलवर और अजमेर लोकसभा सीटों में भाजपा की हार के बाद दो सीटें कम हो गयीं और राजस्थान से उसकी लोकसभा सदस्यों की संख्या में 25 से घटकर 23 रह गयी है. लिहाजा यह परिणाम दोहराना भाजपा के लिए आसान नहीं है.
ऐसा आभास होने लगा है कि हिंदी पट्टी के कुछ किले दरकने लगे हैं. खिचड़ी कैसी पक रही है, इसका तो आभास ये नतीजे दे ही देते हैं. यूपी में कैराना पर सबकी निगाहें थीं. एक तरह से यह एक प्रयोगशाला थी. विपक्षी दलों ने गोरखपुर और फूलपुर लोक सभा उपचुनावों में एकता के प्रयोग की नींव डाली थी और उन्हें दोनों महत्वपूर्ण संसदीय क्षेत्रों में जीत दर्ज की थी. इस बार उस प्रयोग का आखिरी इम्तिहान था.
इससे पहले तक विपक्षी एकता के प्रयोग पर संदेह बना हुआ था कि यह धरातल पर कारगर साबित होगा कि नहीं. विपक्ष का प्रयोग सफल रहा और भाजपा को मुंह की खानी पड़ी. कैराना में राष्ट्रीय लोक दल की प्रत्याशी तबस्सुम हसन को सभी विपक्षी दलों का समर्थन हासिल था. मुकाबले में वहां से सांसद रहे हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह मैदान में थीं. भाजपा सांसद हुकुम सिंह के निधन से यह सीट खाली हुई थी. सामान्य ज्ञान के मुताबिक मृगांका सिंह को चुनाव जीत जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
उन्हें सहानुभूति का लाभ नहीं मिला और विपक्षी एकता के रथ पर सवाल होकर तबस्सुम हसन जीत गयीं. विपक्षी एकता के कारण उत्तर प्रदेश की गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के बाद भाजपा की यह तीसरी हार है. खेल के नियम बदल गये हैं. विपक्ष को समझ में आ गया है कि अकेले वे मोदी और अमित शाह की भाजपा को नहीं हरा सकते.
उन्होंने हाथ मिलाना शुरू कर दिया है. भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कर्नाटक में कांग्रेस ने अपना दावा छोड़ दिया और अपने से कहीं छोटे दल जनता दल- सेक्यूलर के कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया. अब यह हवा चल पड़ी है और हर जगह यह प्रयोग दोहराया जा रहा है. मोदी-अमित शाह की जोड़ी से पार पाने के लिए विपक्ष ने नयी रणनीति अख्तियार कर ली है.
अभी तक नरेंद्र मोदी की अय्यारी भाजपा के पक्ष में थी. उन्हें विपरीत परिस्थितियों को अपने पक्ष में करने में महारत हासिल है, लेकिन अब स्पष्ट हो गया है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में खेल के पुराने नियम नहीं चलेंगे. विपक्ष ने अंकगणित अपने पक्ष में कर लिया है. भाजपा को नयी रणनीति के साथ 2019 के लोक सभा चुनावों में उतरना होगा.
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