।।पुष्परंजन।।
(ईयू एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक)
प्रधानमंत्री अरियल शेरोन इजराइल के पहले शासनाध्यक्ष थे, जो 2003 में भारत की यात्रा पर आये थे. इसके पहले जनवरी, 1992 में भारत और इजराइल के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित हुआ था. आठ साल बाद, सन् 2000 में एनडीए के तत्कालीन विदेशमंत्री जसवंत सिंह तेल अबीब की यात्रा पर गये थे. कूटनीति के कछुआ चाल से बढ़ने का इससे अच्छा उदाहरण नहीं मिलेगा. सोवियत संघ के विघटन के बाद, दो समान राष्ट्रवादी विचारधाराओं वाले शासन के हिस्से में शायद कूटनीति का कपाट खुलना लिखा था, इस वजह से आठ साल की देरी हुई.
नब्बे के दशक में कांग्रेसी नेता कहा करते थे, ‘वाशिंगटन के लिए राजनयिक राजमार्ग, तेल अबीब के बरास्ते खुलता है.’ 1948 से पहले महात्मा गांधी नहीं चाहते थे कि धर्म के आधार पर इजराइल जैसे राष्ट्र का निर्माण हो. संयुक्त राष्ट्र संघ में फिलस्तीन को बांटे जाने का प्रस्ताव 1949 में आया, जिसका भारत ने विरोध किया था. 1954 में नेहरू ने स्पष्ट कर दिया कि हम इजराइल बनाये जाने के पक्ष में बिल्कुल नहीं हैं, लेकिन संघ परिवार आरंभ से ही इजराइल के उदय के पक्ष में था. विनायक दामोदर सावरकर ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में इजराइल बनने के विरुद्घ भारत द्वारा वोट देने की भर्त्सना की थी.
2003 में अरियल शेरोन जब भारत आये, तब उनके विरुद्घ वामपंथियों और इसलामी संगठनों ने रैलियां की थीं, और लगभग सौ मुसलमान गिरफ्तार किये गये थे. उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बयान जारी किया था कि मध्यपूर्व में इसलामी आतंकवाद को बेरहमी से कुचलनेवाले इजराइल की हम प्रशंसा करते हैं. संघ ने कहा कि भारत को इजराइल से प्रेरणा लेनी चाहिए. कूटनीतिक संबंध कायम होने के दस साल के भीतर इजराइल, भारत के लिए सैन्य साजो-सामान का रूस के बाद दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक बन चुका है. 2009 में सीमा पर निगरानी के लिए भारत ने फाल्कोन सर्विलेंस सिस्टम की खेप इजराइल से खरीदी थी. पिछले साल दिसंबर में पंद्रह ड्रोन इस यहूदी राष्ट्र से खरीद कर भारत ने सीमा पर चौकसी मजबूत की थी. भारत, इजराइल से हर साल दस अरब डॉलर का हथियार खरीदता है. बीते रविवार को इजराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने अपने कैबिनेट को बताया कि मोदी और मैंने आर्थिक संबंध और प्रगाढ़ किये जाने पर जोर दिया है.
भारत सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बने, उसका हम समर्थन करेंगे. इंटरनेशनल बिजनेस टाइम्स (आइबीटी) ने टिप्पणी की कि दक्षिण एशिया में मोदी, इजराइल के सबसे बड़े मित्र हैं. ‘आइबीटी’ की रिपोर्ट पर भरोसा करें, तो इजराइल ने पिछले कुछ वर्षो में गुजरात में अरबों डॉलर बहा दिये. इजराइल ने गुजरात में औद्योगिक शोध और विकास, सोलर व थर्मल पावर, फार्मास्यूटिकल्स, इंफ्रास्ट्रक्चर, जल पुनरावर्तन (वाटर रिसाइक्लिंग), जल विलवणीकरण (वाटर डीसैलिनेशन) परियोजनाओं में खूब पैसा लगाया है. इसी साल जनवरी में इजराइल ने भारत में ‘ज्वाइंट टेक्नोलॉजी फंड’ स्थापित करने की घोषणा की. तब मुंबई स्थित इजराइल के महावाणिज्य दूत जोनाथन मिलर ने स्पष्ट किया था कि इस फंड का बड़ा हिस्सा हम गुजरात में खर्च करेंगे. पिछले पांच वर्षो में सबसे अधिक गुजराती शिष्टमंडल ने इजराइल का दौरा किया था. सिडनी स्थित शालोम इंस्टीच्यूट से जुड़े डॉ नवरस जात अफरीदी की मानें, तो दक्षिण एशिया में मुसलमानों की आबादी, अरब देशों से दोगुनी हो चुकी है. अफरीदी इसकी संभावना तलाश रहे हैं कि दक्षिण एशिया के मुसलमान, यहूदियों से कैसे बेहतर संबंध बना सकते हैं. यह सांप-नेवले के एक साथ रहने जैसी कल्पना है!
इजराइल का थिंक टैंक, लंबे अरसे से ‘नागपुर स्कूल ऑफ थॉट’ को विश्वास दिला रहा है कि पाकिस्तान, मालदीव, बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार के रास्ते निर्यात किये गये इसलामी आतंकवाद को नियंत्रित करने में हम मदद कर सकते हैं. इस समय भारतीय मीडिया एक पहेली पर मसरूफ है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी सबसे पहले किस देश की यात्र करेंगे? जापान, रूस, अमेरिका, चीन, कनाडा, जर्मनी, नेपाल या पाकिस्तान? इस सवाल पर बवाल करनेवाले, मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे से बातचीत के हवाले से कहते हैं कि पूर्वी एशिया के ‘आर्थिक पावरहाउस’ की उपेक्षा मोदी नहीं कर सकते. मोदी ने जिन शासनाध्यक्षों को ट्वीट किया, या फोन पर आभार प्रकट किया, तुक्के लगानेवाले कहते हैं कि मोदी, पहली विदेश यात्र उन्हीं के देश में करेंगे.
मोदी चाहे जहां से विदेश यात्र प्रारंभ करें, उससे यह अर्थ नहीं निकाल लेना चाहिए कि वह देश भारतीय विदेश नीति का ‘एपीसेंटर’(अधिकेंद्र) बन जायेगा. उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी, वाजपेयी की विदेश नीति का विस्तार करेंगे, या फिर पीवी नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह की ‘लुक इस्ट पॉलिसी’ को आगे बढ़ायेंगे? अब तक हमारी विदेश नीति लोकल ट्रेन पर सवार थी, उसे ऊर्जा कूटनीति और विकास की बुलेट ट्रेन पर बिठाने के लिए मोदी को कुछ अलग करने की जरूरत होगी. मोदी का स्वभाव, ‘लीक छोड़ि तीनहिं चलें, शायर, सिंह, सपूत’ वाली कहावत की तरह है. अब समय आ गया है कि मोदी भारत की विदेश नीति को ‘वाजपेयी-मनमोहन सिंड्रोम’ से बाहर निकालें, और उसे विस्तार दें.
ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, जापान और पूर्वी एशियाइ देश एशिया-प्रशांत में भारत के सहयोग से एक बड़ी आर्थिक ताकत बनना चाहते हैं. मध्य-पूर्व व अफ्रीका में ऊर्जा दोहन और व्यापार की अपार संभावनाएं हैं. यूरोप भारत में बड़े पैमाने पर निवेश चाहता है, तो बदले में खुदरा में एफडीआइ के द्वार भी खुला देखना चाहता है. इन तमाम मोर्चो पर सफलता तभी संभव है, जब भारतीय वाणिज्य व विदेश नीति के रणनीतिकारों का एक कोर ग्रुप बने, जो इस पर तेजी से काम करे.
विदेश नीति की दिशा अब व्यापार और देश के विकास से जुड़ चुकी है. चीनी राष्ट्रपति ची शिनपिंग, रूस से मिल कर ऊर्जा के लिए ‘पाइपलाइनिस्तान’ की परिकल्पना को साकार करने में लगे हैं. मोदी यदि कूटनीति में भी अच्छे दिन लाना चाहते हैं, तो उन्हें बांग्लादेश से तिस्ता समझौता, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल से संबंध बेहतर बनाने होंगे. अच्छा है कि पाकिस्तान भारत से उद्योग-व्यापार और ऊर्जा सहयोग को आगे बढ़ाना चाह रहा है. पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित फिर भी पुराने विवादों को सुलझाने के लिए चर्चा चाहते हैं. भारत इससे भागे क्यों? मोदी, ‘मियां’ नवाज को बोल दें कि पांच साल हम कश्मीर और सर क्रीक पर बात नहीं करेंगे. पहले व्यापार करें, फिर विश्वास करें!