जनादेश के बाद अस्वाभाविक लगनेवाले दो विपरीत दृश्य सामने हैं. कांग्रेस अपनी ऐतिहासिक हार के बाद आत्ममंथन के लिए बैठी, लेकिन रस्मअदायगी के तौर पर सोनिया-राहुल के इस्तीफे की पेशकश को नकार कर सिर्फ यह कहते हुए उठ गयी कि जिम्मेवारी पूरी पार्टी पर है. दूसरी तरफ भाजपा अपनी ऐतिहासिक जीत के बाद जश्न व इत्मिनान की घड़ियों को थोड़े में ही समेट कर काम पर जुट गयी है.
भावी पीएम नरेंद्र मोदी शपथ तो 26 को लेंगे, परंतु तत्परता दिखाते हुए मंत्रलयों से उनकी उपलब्धियों, खामियों और भावी लक्ष्य का ब्योरा मांग लिया है. यानी एक पार्टी अपनी ऐतिहासिक जीत के बाद बगैर समय गंवाये काम करने की दिशा में गतिशील दिख रही है, तो दूसरी को अपनी करारी शिकस्त से ठोस सबक लेना गंवारा नहीं लग रहा.
ऐसे में तात्कालिक संकट लोकतंत्र के भीतर विपक्ष की भूमिका का दिख रहा है और जान पड़ता है कि कांग्रेस अपने इतिहास तथा विरासत से मुंह फेरकर खड़ी है. आजादी के आंदोलन को नेतृत्व देनेवाली देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने आजादी के तुरंत बाद एक ऐसे समय में भारतीय लोकतंत्र की पुख्ता नींव रखी, जब विश्व के बड़े नेता और विचारक यह मानने तक को तैयार नहीं थे कि भारत सरीखा विरोधाभासों से भरा देश एकजुट रहते हुए लोकतंत्र की राह पर चल सकता है.
ऐसे में कांग्रेस को यह तथ्य शिकस्त खाये बाकी दलों से कहीं ज्यादा चुभना चाहिए कि 16वीं लोकसभा में भाजपा को छोड़ किसी भी दल को दस प्रतिशत भी सीटें हासिल नहीं हुई हैं और संसद के भीतर प्रमुख विपक्षी दल कहलाने के योग्य फिलहाल कोई दल नहीं है. जीवंत लोकतंत्र में विपक्ष ही बहुमत की सरकार की मनमानी पर रोक-टोक लगाने का काम करती है.
यह काम सिर्फ न्यायपालिका या मीडिया और नागरिक संगठनों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि सबकी अपनी-अपनी सीमाएं हैं. उम्मीद थी कि भारतीय लोकतंत्र के भीतर विपक्ष की शिकस्ता-हालत के मद्देनजर कांग्रेस इसे मजबूती देने के लिए तात्कालिक रणनीति, दूरगामी नीति और नेतृत्व के लिहाज से एक शल्यक्रिया से गुजरेगी, परंतु लगता है कि उसने अपने रोग की पहचान से ही इनकार कर दिया. इसे देश में जीवंत लोकतंत्र के लिहाज से निराशाजनक ही कहा जायेगा.